फिर से
बात-चीत अगुआ हो जाती है
समझ किसी शिखर पर
जाकर सो ही जाती है
धीरे धीरे
उतर आती हैं
नंगी तलवारें सड़को पर
हर एक जिव्हा पर
शूलों की खेती हो जाती है
हम
फिर फिर
भटक जाते हैं रास्ते
शांति छोड़ कर
जीने लगते द्वेष के वास्ते
अपनेपन की आदत
अपने-2 अस्त्तित्व की
खींच-तान में
ना जाने कहाँ खो जाती है
देखते देखते
तर्क के धुएं में
जानी-पहचानी ज़मीन
क्या से क्या हो जाते है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरुवार, ९ सितम्बर २०१०
2 comments:
यही तो ज़िन्दगी है।
दार्शनिक
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