Monday, August 23, 2010

बात यूं ही नहीं होती सुलभ



बात कभी कुएं की मुंडेर पर नहीं होती
नीचे होती है
गहराई में
शीतल जल के साथ
मगन अपने आप में
एक छोटे घेरे में
सागर के सन्देश की तन्मयता लिए

बात
यूं ही नहीं होती सुलभ
खुलेपन से स्वीकारने
उतरना होता है गहरे में
 
जीवन के कोलाहल से मुक्त 
अनिश्चय के भय को छोड़ कर
प्रवेश और निकास, दोनों के लिए
सामर्थ्य जुटा कर
जो बात तक पहुँच जाता है
उसके लिए
अन्दर और बाहर का भेद
मिट जाता है शायद

वह जब पारदर्शी होकर
जीवन के अनंत गौरव की कथा
सुनाता है
तो आश्वस्त करता है
उसकी बात पर कुछ विश्वास सा
हो जाता है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ अगस्त २०१०, सोमवार

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सच है, बात तो गहराई में ही होती है।

दीपक बाबा said...

पारदर्शिता में हर बात में विश्वास होता है....
अच्छी कविता लिखे है

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