Saturday, August 7, 2010

सुनहरी गति का चित्र








 
लौट कर 
नई हो जाती है
वही जगह,
यात्रा में दिखने वाली चीज़ों के साथ
एक कुछ अदृश्य सा
चला आता है जो
साथ आँखों के 

उसके स्पर्श से
हर क्षण आतुर है
अपनी नई आभा उंडेलने 
 
व्योम सी देह वाला 
अपनी गोद में बिठा कर
नई तरह से 
खोल रहा है मेरा परिचय 
 
यह जो
सबसे बहुमूल्य है
इसकी सुनहरी गति का चित्र 
वही देख पाए 
जो अपने अपने स्थल से निकल कर
इस चिर नूतनता की यात्रा में
शामिल हो पाए
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ अगस्त २०१०


3 comments:

vandana gupta said...

बिल्कुल सही कहा………………इसकी सुनहरी गति का चित्र
वही देख पाए
जो अपने अपने स्थल से निकल कर
इस चिर नूतनता की यात्रा में
शामिल हो पाए……………………बस "मै" से बाहर आते ही उस यात्रा मे स्वत: ही शामिल हो जाता है जीव्।

संगीता पुरी said...

सही है !!

प्रवीण पाण्डेय said...

बड़ी सुन्दर रचना

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