अपेक्षा के विपरीत
जब मिल जाए
कोई एक क्षण
उस पल
देखो अपने
मन का दर्पण
देखो कितना कुछ कुम्हलाया
क्या कोई क्रोध का बादल मंडराया
अपनी प्रतिक्रिया सहेजने का अभ्यास
रखता है सुन्दरता और मधुरता के पास
अपने से बाहर के होने पर तो नहीं है हमारा अधिकार
पर स्वयं तय कर सकते हैं, भीतर की आंच का आकार
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ५ बजे
बुधवार, १४ जुलाई २०१०
6 comments:
भीतर की लौ को मध्यम ही रखना होगा।
अपने से बाहर के होने पर तो नहीं है हमारा अधिकार
पर स्वयं तय कर सकते हैं, भीतर की आंच का आकार
यह तय करना आ जाये तो जीवन सार्थक हो जाये
संगीता स्वरूपजी से सहमत। अच्छी कविता।
बेहतरीन विश्लेषण्।
मंगलवार 19 जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार
http://charchamanch.blogspot.com/
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