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ले के फिर हो जाता है ऐसा
छोटी सी लगती है दुनिया
लेन-देन का खेल
अपेक्षा और प्राप्ति का युग्म
संतोष और असंतोष के छींटे
तब
जब लगता है कि
इस 'तेरे-मेरे' के खेल से आ चुके हैं बाहर
किसी एक क्षण सहसा
मिट जाता है
बाहर भीतर का भेद
विपरीत दिशा से
मुक्ति के क्षणों का विस्तार
लील लेता है या तो अहंकार
या फिर अपेक्षाओं का सत्कार
२
सीख सीख कर नहीं मिलेगी उंचाइयां
मिल गयी लगी तो ठहरेंगी नहीं
इस शिखर तक पहुँचने की गोपनीयता
सदियों से बनी है
ज्यूं की त्यूं
शायद इस तरह
वो सर्वकालिक, समर्थ अपने
असीम सौंदर्य को
स्वच्छ और निर्मल रख लेने
हमारे हाथ में
प्रवेश की कुंजी देता नहीं है कभी
दे देता है बस यह भ्रम कि
हम जान गए हैं सब कुछ
और पहुँच गए हैं वहां
जहां विस्तार और सार पर हमारा अधिकार है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ८ बज कर ४० मिनट
बुधवार, ७ जली २०१०
1 comment:
मुक्ति के क्षणों को जब जब विस्तार मिला है, जीवन और उभर कर आ गया है ।
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