गगन धरा है
धरा गगन
मुक्ति सहज
मन हुआ मगन
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अब भी मान लो
मूल जो है
सारे अनुभवों का
छुप कर मन में तुम्हारे
खेल रचाता है
सुख-दुःख के,
इसी से जुडी है
व्याकुलता, उद्विग्नता
इसी से प्रकट
आश्वस्ति, निश्चिंतता
अब तो देखो
बाहर से दीखते
हंसाते, डराते चित्रों के रंग
आ तो रहे हैं
तुम्हारे ही भीतर से
हाँ, हो ये रहा है
कि अदृश्य होती जा रही है
संपर्क नदी
अचीन्हा होने लगा है
बाहर-भीतर का पुल
अपनी व्यस्तता के नाम पर
जाने-अनजाने
और सब कुछ सँभालने की जिद में
सबसे पहले
तुम खो बैठते हो
अपना ही परिचय
अपने ही राज्य में
भिखारी बन कर
उनके सामने हाथ पसारते हो
जिनका होना
तुम्हारी लीला मात्र है
इस तरह ना कसमसाओ
अपनी पूर्णता ना बिसराओ
रो रोकर अपने सौभाग्य का
उपहास ना उडाओ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर ४५ मिनट
बुधवार, ३० जून २०१०
3 comments:
सुन्दर
गगन धरा है
धरा गगन
मुक्ति सहज
मन हुआ मगन
अर्थ की गूढ़ता में तिक्त पंक्तियाँ ।
बहुत गहन भाव!
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