Saturday, June 26, 2010

टुकड़ा टुकड़ा सच सुहाता हैं



(जब मैंने गिरिराज जी की परिक्रमा में पानी पीया- चित्र अशोक व्यास )

बात सुनने में आसान है
पर हमारे बोध से खिसक जाती है
कि अनंत पर ध्यान देने से ही
सीमाओं के पार देखने की दृष्टि आती है

हम असीम को बस एक कल्पना मानते हैं
सीमाओं के स्थूल घेरे को ही अपना मानते हैं
सूक्ष्म चेतना के स्तर पर भी जाग्रत है जगत
इस बात को योगियों का सपना मानते हैं


सवाल सत्य का जब किसी कन्दरा से 
सर्प की तरह निकल कर आता है

हमें अपनी केंचुली से निकल कर
 अमृतपान करने को उकसाता है

पर अधीरता और असुरक्षा का भाव 
हमसे ये अवसर छीन कर ले जाता है

हम देख ही नहीं पाते कि मन पर
अज्ञात भय का एक छाता है

और उसे पहचानने से इनकार करते हैं
जो हर पग पर भय से छुड़ाता है

इतिहास में लहू के निशान देख कर
भविष्य में भी खूनी असर दिख जाता है

क्या करें, दिन पर दिन, कुछ ऐसा होता है
कि अविश्वास पहले से ज्यादा बढ़ जाता है
हमें अपने कमरे की शोभा बढाने के लिए 
पूरा नहीं बस टुकड़ा-टुकड़ा सच सुहाता हैं

खंडित में खंडित को देखते देखते यूँ होता है
अखंड का अनुभव हमारे लिए लुप्त हो जाता है 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बजे
२६ जून २०१०, शनिवार







1 comment:

vandana gupta said...

क्या कहूँ ……………जीवन दर्शन है आपकी रचनाओं मे……………बहुत हि गहन अभिव्यक्तियाँ है॥ उस परम आनन्द को प्राप्त करने को प्रेरित करती है हर रचना।

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