Saturday, February 20, 2010

114 - मुक्ति द्वार पर प्रवेश से पहले


यह जो एक क्षण है
जिसमें खुल सकता है रास्ता मुक्ति का

इस क्षण के लिए

जरूरी है अपनी पहचान
बिना पहचान प्रवेश नहीं

प्रवेश करने के बाद
क्या यही पहचान रहेगी
या उस पार
मिल जायेगी पहचान नयी?
और तब
पहचान के आग्रह से उकता कर
छोड़ ही दिया 
मैंने मुक्ति के द्वार पर
खड़े रहने का विचार
कह दिया जिद में
लाओ दे दो
मुक्ति यहीं 
जहाँ भी मैं हूँ
जैसा भी मैं हूँ
यदि हूँ मुक्ति का अधिकारी
मेरे रूठने से
अगर तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं
ओ मुक्तिदाता
तो तुम्हारे रूठने से
क्यूं हो मेरा सम्बन्ध कोई?
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तर्क करते करते 
सहसा 
दिखाई दिया
तर्क के परे
एक उजियारा स्तर
जहाँ प्रश्नों के परे
ना मैं था
ना वो
बस एक था
जो था
जो है
रहेगा यही 
मेरी इस पहचान के तिरोहित हो जाने के बाद
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हाँ
क्षणभंगुर है
यह पहचान
पर
इसमें भी सामर्थ्य है
शाश्वत को रिझाने की
अपनाने की, देखने की और दिखने की 
लो सहसा
शिकायत नहीं
कृतज्ञता से भर गया 
उसके प्रति
जो मुक्ति द्वार पर प्रवेश से पहले
मुझसे मेरी पहचान पूछता है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शनिवार, १९ फरवरी २०१०, सुबह ८ बज कर १९ मिनट 

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