हम नहीं चाहते
अनुकूल तापमान वाली छत को छोड़ना
पर जान लेना चाहते हैं
ठण्ड के प्रभाव को भी
हम देखते हैं
मौसम का हाल
जैसे कोई और देख समझ कर बताता है
हम मानते हैं
अपने अन्दर के मौसम का हाल भी
बता दे कोई और
अनुकूलता छोड़ कर
ना हम बाहर जाना चाहते हैं
ना
भीतर
चुनौतियों का स्वागत करने वाला
द्वार बंद रख कर
अपने आप में बंद
जी लेते हैं हम
नयापन बाहर का
या समय का
नहीं छू सकता हमें
तब तक
जब तक
हम नए ढंग से
स्वयं तक पहुँचने के लिए
नहीं है तैयार
स्वयं तक पहुंचना
दरअसल जानना ही है स्वयं को
जानने के लिए माने हुए को साथ रखते हुए भी
उससे मुक्त होकर
करना होता है भरोसा
अपनी अनुभूति पर
अपनी ग्राह्य क्षमता पर
जीवन स्वीकारने के लिए है
स्वीकारना स्वयं को
अपने विस्तार की संभावनाओ सहित
चुक जाता है जिस क्षण
वह क्षण मृत्यु के सामान है
जीना तो आगे बढ़ना है
सहस और सृजनशीलता के साथ
और उत्सव सी है
यह यात्रा
आगे बढ़ने की
क्योंकि
आगे जाकर भी
हमें स्वयं से मिलना है
जीवन
आत्म मिलन के आभामय बिन्दुओं
को मिलाने वाली
एक स्वर्णिम रेखा है
इस रेखा पर चलते हुए
जो जो
प्रेम, समन्वय, संवेदना और आनंद का
सतत रस स्राव होता है
वही उपलब्धि है जीवन की
हमें
जीवित रहने के लिए
और कुछ नहीं करना होता
बस उपलब्ध हो जाना होता है
जीवन के लिए
2
प्रार्थना कविता के इस छोर पर
बस इतनी
'मैं नित्य निरंतर
जीवन को समर्पित होऊं
जीवन में
जन्म-मृत्यु से परे वाले सृष्टा की
झलक है निरंतर
मैं इस झलक की ओजस्विता में
करता रहूँ स्नान
जीवन यानि आत्म सुधा रस पान'
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
दिसंबर ३०, ०९
बुधवार, ७ बज कर २१ मिनट
अनुकूल तापमान वाली छत को छोड़ना
पर जान लेना चाहते हैं
ठण्ड के प्रभाव को भी
हम देखते हैं
मौसम का हाल
जैसे कोई और देख समझ कर बताता है
हम मानते हैं
अपने अन्दर के मौसम का हाल भी
बता दे कोई और
अनुकूलता छोड़ कर
ना हम बाहर जाना चाहते हैं
ना
भीतर
चुनौतियों का स्वागत करने वाला
द्वार बंद रख कर
अपने आप में बंद
जी लेते हैं हम
नयापन बाहर का
या समय का
नहीं छू सकता हमें
तब तक
जब तक
हम नए ढंग से
स्वयं तक पहुँचने के लिए
नहीं है तैयार
स्वयं तक पहुंचना
दरअसल जानना ही है स्वयं को
जानने के लिए माने हुए को साथ रखते हुए भी
उससे मुक्त होकर
करना होता है भरोसा
अपनी अनुभूति पर
अपनी ग्राह्य क्षमता पर
जीवन स्वीकारने के लिए है
स्वीकारना स्वयं को
अपने विस्तार की संभावनाओ सहित
चुक जाता है जिस क्षण
वह क्षण मृत्यु के सामान है
जीना तो आगे बढ़ना है
सहस और सृजनशीलता के साथ
और उत्सव सी है
यह यात्रा
आगे बढ़ने की
क्योंकि
आगे जाकर भी
हमें स्वयं से मिलना है
जीवन
आत्म मिलन के आभामय बिन्दुओं
को मिलाने वाली
एक स्वर्णिम रेखा है
इस रेखा पर चलते हुए
जो जो
प्रेम, समन्वय, संवेदना और आनंद का
सतत रस स्राव होता है
वही उपलब्धि है जीवन की
हमें
जीवित रहने के लिए
और कुछ नहीं करना होता
बस उपलब्ध हो जाना होता है
जीवन के लिए
2
प्रार्थना कविता के इस छोर पर
बस इतनी
'मैं नित्य निरंतर
जीवन को समर्पित होऊं
जीवन में
जन्म-मृत्यु से परे वाले सृष्टा की
झलक है निरंतर
मैं इस झलक की ओजस्विता में
करता रहूँ स्नान
जीवन यानि आत्म सुधा रस पान'
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
दिसंबर ३०, ०९
बुधवार, ७ बज कर २१ मिनट
No comments:
Post a Comment