Wednesday, December 30, 2009

जीवन स्वीकारने के लिए है


हम नहीं चाहते
अनुकूल तापमान वाली छत को छोड़ना
पर जान लेना चाहते हैं
ठण्ड के प्रभाव को भी

हम देखते हैं
मौसम का हाल
जैसे कोई और देख समझ कर बताता है
हम मानते हैं
अपने अन्दर के मौसम का हाल भी
बता दे कोई और

अनुकूलता छोड़ कर
ना हम बाहर जाना चाहते हैं
ना
भीतर

चुनौतियों का स्वागत करने वाला
द्वार बंद रख कर
अपने आप में बंद
जी लेते हैं हम

नयापन बाहर का
या समय का
नहीं छू सकता हमें
तब तक
जब तक
हम नए ढंग से
स्वयं तक पहुँचने के लिए
नहीं है तैयार

स्वयं तक पहुंचना
दरअसल जानना ही है स्वयं को

जानने के लिए माने हुए को साथ रखते हुए भी
उससे मुक्त होकर
करना होता है भरोसा
अपनी अनुभूति पर
अपनी ग्राह्य क्षमता पर

जीवन स्वीकारने के लिए है
स्वीकारना स्वयं को
अपने विस्तार की संभावनाओ सहित
चुक जाता है जिस क्षण
वह क्षण मृत्यु के सामान है

जीना तो आगे बढ़ना है
सहस और सृजनशीलता के साथ

और उत्सव सी है
यह यात्रा
आगे बढ़ने की
क्योंकि
आगे जाकर भी
हमें स्वयं से मिलना है

जीवन
आत्म मिलन के आभामय बिन्दुओं
को मिलाने वाली
एक स्वर्णिम रेखा है

इस रेखा पर चलते हुए
जो जो
प्रेम, समन्वय, संवेदना और आनंद का
सतत रस स्राव होता है
वही उपलब्धि है जीवन की

हमें
जीवित रहने के लिए
और कुछ नहीं करना होता
बस उपलब्ध हो जाना होता है
जीवन के लिए
2
प्रार्थना कविता के इस छोर पर
बस इतनी
'मैं नित्य निरंतर
जीवन को समर्पित होऊं

जीवन में
जन्म-मृत्यु से परे वाले सृष्टा की
झलक है निरंतर

मैं इस झलक की ओजस्विता में
करता रहूँ स्नान

जीवन यानि आत्म सुधा रस पान'

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
दिसंबर ३०, ०९
बुधवार, ७ बज कर २१ मिनट

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