Saturday, August 30, 2014

कुछ अनदेखे से रंग



 १
उसके मन में फिर धरती को छू लेने की तीव्र इच्छा जाग्रत हुई
तो वह शब्दों के साथ बैठ गया
उसके मन में क्षितिज से परे  देखने की चाह हुई
तो वह कविता की ओर लौटने लगा

उसे लगा वह स्वच्छ पवन के स्पर्श से अपना अंतस पावन कर ले
अनादि काल से बह आते झरने की शाश्वत स्निग्धता में भीग कर
अपनी यूँ ही सी थकान से छुटकारा पा ले

वह फिर कहीं से पंख लेकर उड़ने की स्वतंत्रता को रोकती
 रस्सी को काट देने के लिए आतुर था

इस बार कविता की नगरी का रास्ता जिन पगडंडियों पर से होकर जा रहा था
वहां उसे किसी की कराह सुनाई दी

किसी के गले पर धरे हुए चाक़ू की धार से उपजते दर्द का शोर चुप्पी में घुला हुआ था

उसने कविता से पूछा
क्या इतनी सारी पीड़ा के बावजूद तुम मुझे विश्रांति की दो बूँद दे सकती हो

कविता मौन थी
मैं कविता के पास अपने फैलाव के हर रंग को समन्वित करने पहुंचा था
और
धीरे धीरे
कुछ अनदेखे से रंग भी उभर रहे थे

कविता की दृष्टि में व्यवस्था देने की जो ताकत है
उसे महसूस करते हुए
वह
 एक अखंड भाव से तरंगित हो गया



कविता बनती नहीं
कविता उतरती है
मैं कविता को बनाता नहीं
कविता मुझे बनाती है

स्व-निर्माण के सतत अभियान में
कविता मेरा साथ निभाती है



अशोक व्यास

न्यूयार्क, अमेरिका
३० अगस्त २०१४

1 comment:

वाणी गीत said...

कविता की अंतर्दृष्टि में रंग है घने …
कविता बनाई नहीं जाती , बन जाती है या बनाती है !

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