प्यास परिवर्तन की
जगा कर भगाती है
पर परछाई मेरी
मेरा पीछा करती जाती है
२
तुम्हारे साथ
उस ठहाके की उजली धार का फूटना
कैसे
एक कर गया हमें
एक सुन्दर साझी अनुभूति में
अचरज इस बात पर
अब भी है
कि कैसे
तुमने चट्टान के बीच
देख कर
हास्य का झरना
एक निर्मल मुक्ति में
करवा दिया स्नान
इतने सारे लोगों को
यूँ
अब भी चट्टान तो सूखी है
पर लोग जो भीगे हैं
और जो भीगने वाले हैं
इस झरने में
उद्गम इस झरने का
पहले तो वहाँ होता है
जहाँ तुम्हारी दृष्टि से
उभर आती
जगमग मोतियों सी
हास्य की सुन्दर लड़ियाँ
और फिर तब जब
इस रसमय अनुसंधान से
मिल जाती है
एक और दृष्टि
तो क्या सचमुच जादू सारा
दृष्टि का है
सन्दर्भ सारे तो निमित्त मात्र हैं
जादू क्या सब
हमारे ही भीतर है
जो सजीव करता
अनदेखे स्थल से
तारो ताज़ा करते
हास्य का झरना
सन्दर्भों की पहाड़ी पगडंडी पर
लो अब चलते चलते
एक और बात
जो प्रतिक्रिया को विस्तार देती है
उस बात का हाथ थाम कर
तुम बंधन में भी जा सकते हो
और मुक्ति में भी
दृष्टि मुक्ति वाली भी
हास्यानुसन्धान करवाती दृष्टि की तरह
जोड़-गणित से परे
तुम्हारे निर्मल सत्य की
आग्रह मुक्त अभिव्यक्ति की तरह है
और एक दृष्टिकोण यह भी है
जब छूट जाता पाने का आग्रह
स्वतः सब कुछ पा जाते हम
अशोक व्यास
२ फरवरी २०१४
1 comment:
पाने की आस साँस तक नहीं लेने देती, कुछ जगह तो देनी ही होगी आगत को, कोई विकल्प तो देना होगा दाता को?
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