और फिर
वहीं से
देख रहा था अपना शहर वह
इतने बरसों के बाद
इस पहाडी से उतना दूर नहीं लगता था शहर
जैसा पहले था
न ये डूंगरी ही
उतनी ऊंची जान पड़ती थी
जैसी पहले थी
इतने बरसों में
बहुत ऊंची हो गयी है बस्ती
या अपना कद घटा कर
बस्ती में मिल जाने को आतुर है पहाड़
चाहे जो हो
इस बार
नहीं था वह तिलिस्म
जिसके लिए
कई बड़े बड़े पहाड़ पार करके
लौटा था
वो बचपन के शहर में
अपने आप में
मुस्कुरा कर
क्षितिज को देखते हुए
सोच रहा था वह
शायद जादू जगाने वाली मेरी आँख भी
खो गयी है
अनुभवों के तालाब में
शायद बस्ती ने
कर दिया है कोइ नया जादू
निगलने लगी है
कद सबका
पहाड़ बौना
लोग बौने
इस बार
सोच रहा था वह
आसमान में जाकर
'ऊंचाई' का बीज लाकर
सौप देगा बस्ती को
फैलने की कोशिशों में
ख़त्म हो चला है जो
ऊंचे उठने का आकर्षण
किसी न किसी की साजिश तो है ये
पर किसकी
पहाड़ से उतरते हुए
ढलान ने
भगाते हुए
दे दिया उसे उत्तर
साज़िश
आसानी से लुढ़कते हुए
श्रम से बचाने वाली
एक उस इच्छा की है
जो
दिखती तो निश्छल है
पर अपने चंगुल में
चुप चाप ले जाती है
वो संसार हमारा
जिसमें
संतोष की दौलत
अर्जित करनी होती है
सबको
अपने अपने तौर पर
ये कैसा छल है
जो कंगाल होते होते हमें
दौलतमंद जताता है
और हमसे
मनुष्य होने की दौलत
छीन कर ले जाता है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
22 दिसंबर 2012
2 comments:
मन को जितना मान दिया है,
उतना ही सम्मान मिलेगा।
बहुत खूब लिखा है..
सच्चाई यही है की मनुष्य होने की कीमत की पहचान नहीं है अभी हमें.. पछतावा होगा आगे..
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