1
लिख लिख लिख
ये कौन है
थपथपा कर चाह जगाता अभिव्यक्ति की
शब्दों के बीच
सहसा अपना मुख दिखलाता
फिर छुप जाता
है कौन ये ?
2
शायद जानता हूँ उसे
इतनी अच्छी तरह
जैसे की जानता हूँ स्वयं को
पर
विस्मृत हो जाती है
पहचान
लिख लिख लिख
स्मरण करवाने
मेरे होने का
वही निकल आता
शब्दों के बीच
एक निश्चल खिड़की बना कर
3
यह कैसा खेल है
बनने और मिटने का
सब कुछ
कितने जतन से सजा-सजा कर
देखते दिखाते
धीरे धीरे
हम इस खेल की तरह
शेष हो जाते
और
शून्य तक की इस यात्रा में
यह जो सूत्र है
एक आलोकित मुस्कान का
यही हो न तुम
या शायद
यह तो
एक परावर्तन भर है
तुम्हारे
अनंत उल्लास का
एक नन्हा सा पदचिन्ह
इसे लेकर भी
कितना तृप्त हूँ में
यहाँ तक लाने के लिए ही
तुमने संभवतया
रच दी
खिड़की शब्दों की
और
लिख लिख लिख की थपथपाहट में
अब सुनती है
तुम्हारी अपार करूणा
तुम तक पहुँचता है न
मेरे रोम रोम से फूटता
यह भाव कृतज्ञता का
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
13 दिसंबर 2012
7 comments:
यही तो कौन परमेश्वर है, अपना, साधू साधू
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..
आपका इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (15-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
सुंदर अभिव्यक्ति .....
वाह ... बेहतरीन
अति सुन्दर अभिव्यक्ति...
:-)
अरूणजी, प्रवीणजी, वंदनाजी, अनुपमजी, सदाजी और रीनाजी, कविता में जिसकी करूणा के भाव हैं, उसकी सराहना के लिए आप सबके लिए विशेष आभार और शुभकामनाएं, अनियमित होने से आप सबकी टिप्पणियाँ आज ही पढ़ें, उत्साहवर्धन हुआ, धन्यवाद
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