कहने- सुनने से परे
यह जो सुनता है
संगीत जीवन का
मेरे -तुम्हारे से अलग
यह जो बजता है
आनंद अपनेपन का
इसे साथ लेकर
मुक्त चेतना
समर्पण दीप से
उतारती है आरती
तुम्हारी
ओ विराट
और मैं
इस
अर्पण- स्वीकरण से परे
इस क्षण
देख कर
यह मिलन
शून्य में सम्माहित
स्थिर, निश्चल, शुद्ध
निर्विकार
मुग्ध
महामौन में लीन
कहने सुनने से परे
हूँ
बस हूँ
ऐसे की जैसे
हो चला हूँ
होने न होने से परे
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
8 दिसम्बर 2012
3 comments:
प्रशंसनीय निर्लिप्त भाव ....!!
होने ना होने से परे !
अकथनीय जो कहा गया !
हर विशेष है..
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