Tuesday, October 9, 2012

जो मौन में तिरता है



खेल करने और न करने के बीच 
यह जो होता है 
जैसे 
मथने के बाद 
निथर आता मक्खन 
जैसे 
ढलान पर 
बंद करने के बाद भी 
लुढ़कती हुई गाडी 

वह गति 
जो ठहर जाती है 
प्रयास के बाद 
प्रकट होती है 
अपने आप 
अनायास जैसे 

इस 'अपने आप'
होते जीवन का सौन्दर्य 
देखने और भोगने में 
दिखाई दे जाता है 
अनदिखे का चेहरा 

और फिर 
उसे सायास पकड़ने के प्रयास में 
छूट सा जाता है 
एक वो निर्मल, निश्छल 
अनछुआ सौन्दर्य 
जो मौन में तिरता है 
किसी पवित्र क्षण में 
और मुझे सब कुछ छोड़ कर 
सब कुछ अपनाने की सीख 
दे देता है 
अपनी उस मस्ती में 
जिसे छू छू कर भी 
जिससे असम्प्रक्त सा 
रह जाता हूँ बार बार मैं 

अशोक व्यास 
9 अक्टूबर 2011 

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

मौन में अनुभव मौन का सच।

Anupama Tripathi said...

इस 'अपने आप'
होते जीवन का सौन्दर्य
देखने और भोगने में
दिखाई दे जाता है
अनदिखे का चेहरा
बहुत गहन कहा है ....

सुंदर मौन की गाथा

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