सन्नाटे में
कैसे बोलती है
उसकी आँख अब भी
सादगी से संवेदना तक पहुंचाती
उसकी
यूं ही सी आँख
छुपाये रही
कैसे वो एक आग सी
वो आग
जिसको धधकते हुए न देखा गया चाहे
उसकी लौ में
उभर गए कितने अमिट किरदार
उसकी हंसी में
वो कैसा प्रेम छलकता था
परिधियों से परे तक
ठंडक पहुंचाता
शीतल मन, करूणा निश्छल
आने-जाने से परे हो गए हंगल
अशोक व्यास
3 comments:
अपनी परिधि में बैठकर स्वयं को निहारना..
शीतल मन, करूणा निश्छल
आने-जाने से परे हो गए हंगल
vinamr shraddhanjali ...
बहुत सुन्दर चित्रित किया है आपने.
हंगल का मंगलमय दर्शन.
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