Sunday, September 2, 2012

जो वैसे है बड़ा आसान


एक वो दौर जब   
प्रेम कवितायेँ 
शहतूत की तरह 
टपकती थीं 
अँगुलियों की पोरों से 

भीगे मन पर 
उभर आती थी 
चांदनी की पद-चाप अनायास 

ना जाने कैसे 
भागते हिरन की आहटों में 
सुनाई दे जाता था 
झील का सुरीला गीत 

तब 
यूँ था कि 
माटी में महल बनाने और बिखेरने का खेल 
अच्छा लगता था 
बहुत सुहाता था 
सत्य के शाश्वत सुर
सुन ही नहीं पाता था 


और फिर
मिटने मिटाने के खेल से 
समझ कुछ उकताई 
अनुभव गंगा में 
अंतरहित की वाणी उभर आई  
चिरंतन की अंगुली पकड़ कर 
 बदलते हुए सब आकारों में
दे गया बस एक ही आकार दिखाई 


छूट सा गया
दिल को बहलाने वाला 
पुराना हर खेल 

अब
कभी तो 
समंदर आलिंगनबद्ध करता है 
और पूर्णता का बोध सा  भरता है 
सूर्य पुत्र होने का भाव जगा कर 
मेरा सारा दारिद्र्य हरता है 

पर कभी 
ऐसा भी होता है 
सहसा 
छिटक जाती है 
अनंत की लय 
उमड़ आता है 
अनिश्चय का भय 

फिर फिर करना होता है 
पहचान का आव्हान 
कितना मुश्किल हो जाता है यह सब 
जो वैसे है बड़ा आसान 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
2 सितम्बर 2012 

5 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

अब अनंत की खोज रहे हैं..

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बहुत अच्छी रचना,
क्या कहने

Anupama Tripathi said...

कितना मुश्किल हो जाता है यह सब
जो वैसे है बड़ा आसान
प्रभु की कृपादृष्टि का ही खेल है सब ....
बस वही बनी रहे ...तो जग उजियारा है ...!!

Saru Singhal said...

Very beautiful creation Sir. Profound!

Rakesh Kumar said...

आसान के मुश्किल हो जाने में
भी कितने राज छिपे हैं अशोक भाई.

खूबसूरत गुत्थी सुलझाई है आपने.


पहचान के आव्हान का बिसराना
ही सबसे बड़ा राज है जी.

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