जहाँ हूँ
जैसे हूँ
देख कर खिड़की से
धूप के फैले हुए हजारों हाथ
उजियारे के साथ मुस्कुराता हूँ
पेड़ों की नंगी शाखाओं से
आँख मिलाता हूँ
वसंत के दिनों की
याद दिलाता हूँ
अपने हिस्से की
हरियाली लेकर
सपनो के
नए बगीचे लगाता हूँ
कितने मौसम
बदलते जाते हैं
मेरे भीतर
और मैं
तुम्हारा नाम में धरे
शाश्वत के साथ
खिलखिलाता हूँ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० जनवरी २०१२
1 comment:
वह चिरजीवन वह नित नवीन..
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