आज मैं कविता नहीं लिख रहा हूँ
यूं कविता मैं कभी लिखता नहीं
हर दिन
कविता की संगत में
स्वयं को नए रूप में लिखने का
विनम्र प्रयास करता हूँ
२
शब्द
कभी
गुफा से निकलते सूरज की तरह
चकाचौंध कर देते हैं मुझे
उनकी आभा में नहाता
मैं
अपनी चुप्पी में
भर लेता हूँ
कविता का वह स्पर्श
जिससे
सुनहरा हो जाता मेरा सारा दिन
३
आज कविता नहीं
स्वयं को ही लिखना है
शुद्ध रूप से
ऐसे जैसे की
रेतीले टीले पर
कंघी करती हुई
निकल जाए सरसराती हवा
जैसे
पानी को गुदगुदा कर
खिलखिलाए हवा
तरंगों की गति में
छुपे हुए
अज्ञात को
देख लेने
आज फिर
शिखर से
क्षितिज को निहारता
मैं
अनंत की कविता में लीन
शब्द गंगा में घुल कर
निःशेष हो जाने की
प्रसन्नता से
झिलमिला रहा हूँ जब
इस आनंद को आधार देते
तुम
क्या अब भी समझते हो
छुपे हुए हो मुझसे?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
११ नवम्बर 2011
1 comment:
शब्द जैसे भी व्यक्त होना चाहे।
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