नए सिरे से
अपने घर की पहचान
करते करते
एक क्षण
यह लगता है
जो कुछ बना, या बनाया गया
उसमें सिमट नहीं पाया है
समूचा अस्त्तित्व
२
नए सिरे से
अपनी पहचान के सूत्र टटोलते टटोलते
विस्मय होता है
एक वो 'अनिश्चय'
कैसे नया सा
बना रह जाता है
कई दशकों के बाद भी
जुड़ जुड़ कर सुरक्षित होने
की कोशिश करते करते
एक क्षण
ऐसा भी लगता है
सुरक्षा के साथ साथ
असुरक्षा भी देता है जुड़ाव
३
मैं अपने होने के लिए
कृतज्ञता
किसे अर्पित करूँ
इस भाव के साथ
देखता हूँ
अब तक की यात्रा
और
सबके नाम
आभार पुष्प अर्पित कर
देखता हूँ
नए सिरे से
अपनी वह पहचान
जो जुडी है सबसे
पर बंधी किसी से नहीं है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ अगस्त २०११
5 comments:
सभी रचनाएँ अच्छी लगीं ... नए सिरे से पहचान थोड़ा कठिन काम है
अशोक जी आप चुन चुन कर शब्द पिरोते है प्रव्मायी कविता में . आपकी कविता में सरल बहाव का में कायल हूँ बधाई
एकात्मता और समग्रता का सशक्त चित्रण।
हर पंक्ति में मनोहारी भावों का समावेश,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
संगीताजी, कुश्वंश्जी, प्रवीणजी और विवेकजी
आप सब का 'अपनी पहचान' की 'अभिव्यक्ति यात्रा' में शामिल होने के लिए धन्यवाद
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