Thursday, June 16, 2011

हर एक रूठे को मना दे मौला



बैचेनी है जाने क्यूं इतनी सारी
रात हो गयी है मुझ पर कितनी भारी
वक्त पड़े क्यूं काम नहीं आती मेरे
कहाँ धरी रह जाती है सब तैय्यारी


नींद चुरा कर कौन कहाँ ले जाता है
एक अधूरा सपना सा दे जाता है
साँसों में एक राग टूटता दीखता है
बरसों के सावन को झूठ बताता है



अब जो देखा, मचान पर देखा
तीर उसका, कमान पर देखा
सिमटे मेले वो मौज -मस्ती के
सुख का ठेला, ढलान पर देखा

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साया बरगद का घना दे मौला
अपने जैसा ही बना दे मौला
फूल ऐसे खिला दे धड़कन में
हर एक रूठे को मना दे मौला


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरुवार, १६ जून 2011     
       

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

और क्या चाहूँ मौला?

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...