Saturday, June 4, 2011

जो है



एक स्थल ऐसा
जहाँ
पकड़ना नहीं कुछ भी
छोड़ देना
छोड़ देना, छोड़ने का भाव भी
बस हो रहना
उसका
ऐसे जैसे सागर की हो जाती है
नमक की डली
और अगर
डली हो शक्कर की
तो भी
उसे नहीं चिंता
अपने प्रभाव की
अपनी पहचान की
घुलना आता है उसे
जैसे
अपने से विस्तृत एक में
घुलना टूटना नहीं
विस्तृत हो जाना है
और
विस्तार के लिए
करना कुछ नहीं
बस छोड़ भर देना है
ऐसे
की
छूट जाए
छोड़ने का भाव भी

महत्त्व नहीं इसका
की क्या साथ लिया
क्या साथ ली था
जो है
जैसा है
सब छूट जाना है
जाने अनजाने
सोच कर जब हम
सोच से परे पहुँचते हैं
तो एक आलोकित शून्य
करता है स्वागत
और सौंप दे सकता है
उस अक्षय पूर्णता का स्वाद
जो सिर्फ वही दे सकता है
जो है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ जून २०११  
                 

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

पकड़ने की कोशिश मे सब छूट जाता है, छोड़ देने से घूम घूम कर आता है।

Anupama Tripathi said...

विस्तार के लिए
करना कुछ नहीं
बस छोड़ भर देना है
ऐसे
की
छूट जाए
छोड़ने का भाव भी

मन की कड़ी जुडती ही जाती है ...
जग से छूटा प्रभु से जुड़ा......
फिर छूटा कहाँ ...?

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