कोई धैर्य से
ढूंढ ढूंढ कर
निकाल सकता है
मोती,
कोई सजगता से
तेज हवाओं में
बचा सकता है
अंतर्ज्योति
हम जो चाहते हैं
वो पाते हैं
चाहने की लय से
जीवन सजाते हैं
पर ये हो जाता है अक्सर
हम चाहते क्या हैं
ये समझ नहीं पाते हैं
इधर-उधर समय बिताते हैं
जीना स्थगित करते जाते हैं
आ पहुँचती है अंतिम सांस अचानक
और हम जीना शुरू भी नहीं कर पाते हैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२८ मार्च २०११
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अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२९ मार्च २०११
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जब तक नहीं हो पायेगी अपनी पहचान
तब तक अधूरापन रहेगा विद्यमान
देखना ही होगा, वह 'एक' जिससे जीवन है
जिसके होने से, हर मनुष्य है ही महान
यूँ तो देखना हमारा नित्य गतिमान है
पर इसके बीच ठहराव का एक स्थान है
धरा के हर एक हिस्से पर, हर क्रिया में
करना हमें, उस स्थल का अनुसन्धान है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२९ मार्च २०११
3 comments:
अटूट आत्मविश्वास से भरी रचना -
सुंदर सोच भी परिलक्षित कर रही है .
इधर उधर भटकना, जीना स्थगित करने जैसा ही है।
धन्यवाद अनुपमजी और प्रवीणजी
इस कविता में एक खंड और जुड गया है आजआशा है आप देख पायेंगे
अमेरिका में सुबह है अभी
भारत में शाम होने को है
रोचक बात है
समय एक समय भी एक सा नहीं रहता
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