Sunday, March 27, 2011

शाश्वत स्पंदन




सोच कर नहीं
पर बिना सोचे भी नहीं
सोच कर न सोचने के बीच 
एक जो
सुन्दर विराम होता है विस्तार का
एक जो अचंचल चंचलता होती है पंखों में
उस संधि काल में
जब अँधेरा और उजाला एक दूसरे पर
भरोसा कर
विश्राम के लिए प्रस्थान करते हैं

उस मिलन के महीन क्षण में
न जाने कहाँ से आकर
वो रख देता है
मेरी हथेली में
एक 
शाश्वत स्पंदन

ये एक मर्मयुक्त क्षण
सार युक्त बना देता है
सारा जीवन


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविव्वर, २७ मार्च २०११   

      

4 comments:

केवल राम said...

उस मिलन के महीन क्षण में
न जाने कहाँ से आकर
वो रख देता है
मेरी हथेली में

बहुत सुंदर ...सार्थक रचना के लिए आपका आभार

प्रवीण पाण्डेय said...

सोच कर न सोचने के बीच के सुन्दर विराम अनुभव करने की उत्कण्ठा बनी रहती है।

Ashok Vyas said...

केवल राम जी और प्रवीणजी को
शाश्वत सुमिरन के साथ शुभकामनाएं और नमन

Kamlesh Mehta said...

Na hote huve bhi ahsas ho, kaisa a kshan? Sukshm kshan ko naapne aur bhapne ka aap ka prayas prashaniya avam prashansniya hai. Bahut khub.

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