(देखते देखते सुन्दर हो जाता परिवर्तन- चित्र- अशोक व्यास) |
किसी एक अनजान क्षण
बढ़ने लगती है
जब
आवेश की धारा
मेरे भीतर,
बदल जाता है
प्रतिक्रिया का समीकरण
उत्तेजना और क्रोध का मिश्रण
अगुआ कर लेता
मेरा परिचय,
संतुलन छिन्न-भिन्न होता
सहज हास्य भी
आग में घी सा काम करता है
ऐसे में
तटस्थ होकर देखता हूँ
अपने भीतर उमड़ता लावा सा
एक विद्रोह का बगूला सा
आपत्ति उठाता व्यवस्था के प्रति
परिवर्तन की कंटीली प्यास सी
और फिर
अपने को विनाश से बचाने
धीरे धीरे
इस सर्पीले क्रोध को
शांत करने
उतरता हूँ
आत्म-गंगा में
डुबकी लगा कर
विस्तृत सन्दर्भों की चेतना में
धीरे धीरे मुक्त करता हूँ
सहानुभूति, करूणा, प्यार
और
स्वीकार करते हुए उस क्षण को समग्रता से
बदलाव के सौम्य कदम उठाता
आवेश मुक्त मैं
फिर से जी उठाता हूँ
अपने निष्कलंक विराट रूप में
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० अगस्त २०१०
2 comments:
nice thought
आवेशीय दिग्भ्रम को दिखाती सुन्दर कविता।
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