Sunday, August 8, 2010

मनुष्य होने का गौरव


रक्षा राखियाँ करती हैं
या वो भाव जिसको लेकर राखी बंधती है
आत्मीय कटिबद्धता क्या एक दिन तक सीमित है?
राखी जिस जीवन शैली को सहेजने,
जिस जीवन दृष्टि को व्यवहार में लाने का नाम है 
उसके लिए
धागा बाँधने से पहले जिस सुन्दर सार से
बंधा होता है ह्रदय
वो बंधन मुक्ति देने वाला 
अब भी होगा 
भारत की हवा में
पर सबको दिखाई नहीं देता
कई बार देखने का अर्थ महसूस करना होता है
महसूस करने के लिए जो संवेदना चाहिए
वो संवेदना बची रहे साँसों में
इसीलिए लिखता हूँ कविता
जाता हूँ मंदिर
सुनता हूँ प्रवचन
पढता हूँ शास्त्र
जो भी करता हूँ
इसलिए करता हूँ कि
मनुष्य होने का गौरव धड़कता रहे
मेरे भीतर
और हर मनुष्य की गरिमा का सम्मान करते हुए 
सहज ही सृष्टा का मान
करता रहूँ निरंतर

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, ८ अगस्त २०१०

3 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मनुष्य होने का गौरव बनाये रखना अपने आप में बहुत बड़ी बात है ....सुन्दर अभिव्यक्ति

प्रवीण पाण्डेय said...

मनुष्य होने का गौरव जो धड़कता है, हमें बहुत कुछ कर देने को विवश कर देता है सृष्टि चलाने हेतु।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मंगलवार 10 अगस्त को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ....आपकी अभिव्यक्ति ही हमारी प्रेरणा है ... आभार

http://charchamanch.blogspot.com/

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