1
कविता शाश्वत की सत्ता दिखलाती है
सत्य के प्रवाह में डुबकी लगाती है
रचना प्रक्रिया सूक्ष्म का मान बढ़ा
असीम स्नेह को पुकार लगाती है
२
भीड़ के पास
नहीं है ताकत
कि चुरा सके चैन तुम्हारा
अगर किसी
हर-भरे पेड़ की तरफ
बना रह पाए ध्यान तुम्हारा
३
हम जितना जानते हैं
उसके एक छोटे से अंश का
जिस क्षण कर लेते हैं प्रयोग
मिल जाती मुक्ति
बह आता आनंद का झरना
हो जाते निर्मल, निरोग
पर कुछ है
जो हममें जड़ता फैलाता है
हमारे देखने, महसूस करने की
पात्रता घटाता है
हम किसी के दिखाए
को देख देख कर
उससे अपने लिए
एक कोठरी बनाते हैं
उस घेरे में
रहते रहते
सत्य की पहचान को
सीमित कर जाते हैं
फिर इस सीमा से
पार निकलने को
बेतरह छटपटाते हैं
इस कोशिश में
नाकाम रहने पर
विवश हो जाते हैं
अक्सर होता है
हम बार बार अपनी दिशा भूल जाते हैं
और गंतव्य से दूर होने के लिए
किसी और को दोषी ठहराते हैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ८ बज कर ३० मिनट
शुक्रवार, १६ जुलाई २०१०
2 comments:
nice poem
प्रत्येक हृदय में यही जद्दोजहद चलती है अपनी सीमाओं से बाहर आने की।
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