मेला समेटने वाला
अनदेखा करता है
धरती पर बिखरे
उल्लास और उमंगों के रंग
उसे
तो हर चिन्ह मिटाना है
फिर कहीं जाकर
नया मेला सजाना है
उसे मालूम तो है
वो सब
जो उमड़ता है
मेले के झकाझक उजाले में
वो झूले, वो भेल-पूरी, वो चाट, वो खेल
वो गुब्बारे
और बिना बात हँसते लोगो के रिश्ते
वो जानता तो सब है
शायद कभी
वैसे भी आया था मेले में
जैसे कि और लोग आते हैं
पर अब
वो मेले को जीता नहीं
मेला परोसता है
खुशियों के पल रचने का आधार बनाता
वो ना जाने किस पल
समेट चुका है
अपना रिश्ता
घटती-बढ़ती खुशियों से
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर ५५ मिनट
सोमवार, १२ जुलाई २०१०
2 comments:
मेले का मर्म जो जान लिया,
कर्म वो अपना जान लिया।
हम जी रहे हैं मेले का एक पात्र बनकर। और बाकी सजाने वाला तो सबका मालिक ही है जो है तो एक जिसे देखने के (देखना तो इस कलियुग मे असंभव सा लगता है क्योंकि आज चारों ओर देखने पर पता चलता है कि बड़े बड़े साधू संत भी इस युग के प्रभाव से अछूते नहीं हैं। रचना भावपूर्ण। सुन्दर।
Post a Comment