बस एक आई थी जो
गर्म दोपहरी में
३ घंटे की प्रतीक्षा के बाद
इस छोटे से गाँव के
बस स्टैंड पर से धूल उड़ाते हुए
निकल गयी
अपनी तेज़ रफ़्तार में
मैंने देखा
उसने भी देखा
बस का इस तरह जाना
फिर सामान हाथों से, काँधे से उतार कर
फिर रख दिया पेड़ की छाया में
पर वह उदासीन सा था
इस सबके प्रति
बल्कि मुस्कुरा ही रहा था
बस के यूँ निकल जाने पर
इस बार,
पानी की बोतल से आखिरी घूँट पीकर
जब मैंने फिर से
स्थिति को कोसने के लिए
कुछ कहना चाहा
उसने मेरी ओर देखा
बिना कुछ कहे
ना जाने कैसे कह दिया
'जो है
सब ठीक है
वो करो
जो कर सकते हो
उसे स्वीकारो
जो हो रहा है
कोसने से हल नहीं आता है
बस ये होता है
तन के साथ मन भी जल जाता है'
उसकी आँख देख कर
ना जाने कैसे
पहली बार मुझे लगा
स्थिति इतनी बुरी भी नहीं
मैं तो बस गाँव का अनुभव लेने आया था
प्रतीक्षा भी अनुभव के बढ़ने का हिस्सा है
सहसा कहीं से शीतल हवा चली
वो व्यक्ति अब मेरी ओर देख कर मुस्कुराया
बिन बोले बोला
'मैं तो बस तुम्हे ये बताने आया था
घबराना मत
हर अनुभव तुम्हारा हिस्सा है
और तुम जिसका हिस्सा हो
वो साथ रहता है
हर अनुभव में तुम्हारे
कभी ऐसे जैसे मैं हूँ
और कभी अदृश्य रूप में'
मेरे मन में प्रसन्नता का नृत्य फूटा
मुख पर मुस्कान उतरी
आँख इस अनाम अनुभूति का स्वाद पचाने के लिए
मुंद गयीं अपने आप
और कुछ क्षण बाद
अपने आप में मगन
चखता, सूंघता, सहेजता रहा
एक करूणामय अज्ञात की स्नेहिल उपस्थिति को
फिर बस के आने का स्वर सुन
देखने लगा
आती हुई बस को
तब सहसा देखा
पेड़ की नीचे
वह व्यक्ति नहीं है
ना उसका सामान
मैं ही हूँ
बस की प्रतीक्षा में अकेला
तो क्या....
चलती बस से पीछे मुड कर
देखने की कोशिश करने लगा
शायद वो दिख जाए
इस बीच
कन्डक्टर ने आकर कहा
'पीछे क्या देख रहे हो बाबूजी
आगे देखो
जिसे पीछे देख रहे हो
वो आगे भी दिख जाएगा'
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ८ बज कर १५ मिनट
रविवार, ४ जुलाई २०१०
3 comments:
जिसे पीछे देख रहे हो
वो आगे भी दिख जाएगा'
क्या बात है, बहुत सुन्दर रचना!
umda rachna...!!
हमारा ही मन हमें विभिन्न पहलुओं पर बिठा कर अठखेलियाँ करता है । बस निकलते देखा है, मैं अपने सामान के साथ नितान्त अकेला ।
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