ना जाने कैसे
अपने मन में
अपनी ही अपेक्षित छवि
का रूप बदल जाता है,
समय के साथ
कामनाओं का नया रूप
निखर कर
नया आकार रच जाता है
पहले जिस पटरी से
जुड़ा होता है
बोध अपनी पहचान का,
बाद में, उस पटरी का
अस्तित्व ही
नहीं रह जाता है
२
हम जो हैं
हमारे होने का जो मर्म है
वो किसी छवि पर निर्भर नहीं है
ये आत्म-निर्भरता
सहेज पाने का अवकाश
हमारे पास निरंतर नहीं है
जब एक छवि से छूट जाते हैं
तो दूसरी छवि बनाते हैं
एक कैद से दूसरी कैद तक
ख़ुशी ख़ुशी पहुँच जाते हैं
३
चलो आज यूँ करें
शिखर तक दौड़ कर जाते हैं
विस्तार की पुकार लेकर
विराट तक अर्जी पहुंचाते हैं
पर कहेंगे क्या उससे
जब वो पूछेगा
हम किसी 'सीमित छवि' के पीछे
बार बार उसको भूल क्यूं जाते हैं?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ९ बज कर १५ मिनट
शनिवार, ३ जुलाई २०१०
1 comment:
अपनी लघुता के लिये हम स्वयं उत्तरदायी हैं । कोई रोकता नहीं हमें इतिहास के पन्नों में उतर जाने को, कोई टोकता नहीं यदि हम अनन्त को सीने में उतार लें । हमारी सुविधा हमें ले डूबती है अनस्तित्व के धरातल में ।
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