इक क्षण ऐसा
कि ब्रह्मज्ञान पर ताला
कोई उतार देता है
पहनी हुई माला
अब ना सुख-चैन, ना शांति
ना प्रेम की मधुशाला,
फिर से अमृत पिपासा लेकर
भटकता है मतवाला
२
जो किया उससे बंधन
जो ना किया, उससे बंधन
इस तरह बंधन से बंधन तक
चलता है जीवन
एक दिन ऐसा
सीख का खुरदुरा आँगन
हाँ, बहुत कहा- सुना
पर सीखा नहीं समर्पण
३
चलो अपने आप
सुनो मन की थाप
ऐसे अपनाओ किरणे
आशीष बन जाए ताप
होता है सबसे प्यारा
अपने हिस्से का उजियारा
स्वच्छ करती है गति
जीवन बहती धारा
हर अनुभव में
बुनो मंगल गीत
घटती नहीं कभी
अक्षय है प्रीत
गुरु कर देते संशय निरसन
हर घटना में छुपा है विकसन
सीखो अर्पण, जीओ अर्पण
खुल जाएगा हर एक बंधन
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर ३० मिनट
गुरुवार, १ जुलाई 2010
3 comments:
nice
सीखो अर्पण, जीओ अर्पण
खुल जाएगा हर एक बंधन
-बहुत बढ़िया.
आपकी रचनाओं में शब्दों का चयन एक विशेष हल्कापन सा लिये हुये है । साथ में उड़ते उड़ते अन्त तक आते हैं ।
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