Tuesday, February 23, 2010

117 कितने सारे मोर्चे हैं


इस क्षण
शब्द रस्सी थाम कर
उतर जाने अपने भीतर के कुएं में
जब धरता हूँ ध्यान
कुआँ खो जाता है
जहाँ 
काली गहराई थी
वहां खुला आकाश हो जाता है


फिर एक बार
लौट कर 
सहज शांत गुफा में 
मन को कैसे विश्वास दिलाऊँ
कि वो नित्य संघर्ष के लिए ही नहीं बना है

कितने सारे मोर्चे हैं
जो बुलाते हैं
भगाते हैं
थकाते हैं
कभी जीत का झंडा दिलाते हैं
कभी रुलाते हैं

इन सब लड़ाईयों के बीच
इस सब हाहाकार के बीच

कैसे रह पाया यह
सहज शांत स्थल सुरक्षित

विस्मय होता है
अपने विस्तार पर

और मौन में फूटता है जो मुझसे
इस निश्छल प्यार पर

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर १० मिनट
मंगलवार, २३ फरवरी २०१० 

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