खेलने एक नाटक
धकेला तो गया है मंच पर
पर बताया तो नहीं गया
कब हटेगा पर्दा
कहाँ बैठे हैं दर्शक
और
यह भी तो नहीं पता
कब मंच से उत्तर कर
बैठ जाना है
दर्शक दीर्घा में
अवसर जो है उपलब्ध
पहचान इसके महत्त्व की
आई नहीं साथ
शुरू हो चुका है नाटक
बीत रहा है समय
लेखक - निर्देशक सब
बैठ गए हैं छुप कर
पात्रों के भीतर
फिर भी
अंतिम दृश्य तक
पहुँचते पहुँचते
अस्पष्टता
अपनी भूमिका के प्रति
बनी रह जाती
ज्यों की त्यों
ऐसा क्यों ?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
अक्टूबर १६, २०१४
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