1
जब कभी
किसी गढे गढ़ाए विचार ने
आकर लगा दिया मेरी कनपटी पर रिवोल्वर
और
कहने लगा
सत्य के इस चेहरे को
अब कविता के रूप में कर दे मुखर
तब तब
कविता नहीं हो पाई
बात बनते बनते
नहीं बन पाई
कविता नूतनता की पक्षधर है
स्वतंत्रता की सृजनशील लहर है
मेरी कविता सिर्फ मेरी नहीं है
इस पर अब शाश्वत का असर है
२
अब कविता के पास बैठ कर
बंद कर दिया है अपना राग
बस सुनता हूँ कविता से
कभी शीतलता, कभी आग
और कभी एक तरह का आक्रोश
क्यूं खोता जा रहा है सबका होश
३
अब भी बारूद हैं, नफरत है, हिंसा है, मरने मारने का क्रम जारी है
खुद को उड़ा कर विध्वंस फैलाने वाले कर रहे किसकी तरफदारी हैं
क्या इन लड़ने लड़ाने वालों का
हमसे भी कुछ नाता है
होगा तो सही, पर कई बार
समझ में नहीं आता है
जागते तब भी नहीं जब एक घर
पूरी तरह झुलस जाता है
हमें दूरियों के घूंघट में
खुद को छुपाना आता है
पर काल कुछ ऐसा है
हर दूरी पार कर जाता है
एक दिन चिंगारी का वंशज
हमारे घर का द्वार खटखटाता है
एक क्षण ऐसा ना आये
जब हम नहीं कर पायें प्रतिकार
नहीं बता पाएं
हमें शांति में दिखता है जीवन सार
नहीं जता पायें
सबको प्रेम दिए बिना नहीं होगा उद्धार
ऐसा ना हो क्रूरता के पीछे
दिख ही ना पाए करुणा की रसधार
अपने छोटे छोटे सन्दर्भों के पार
विस्तृत फलक में करना है विचार
और अपनी मानवीय आस्था के प्रति
अपने समर्पण का करना है परिष्कार
अब तो सोचना, सीखना और करना होगा
वो सब, जिससे बढाया जा सके प्यार
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ मार्च १० सोमवार
सुबह ८ बज कर ५० मिनट