Monday, January 31, 2011

चुप रहने का अर्थ










वहां तक देखो
जहाँ कुछ दिखाई नहीं देता है
हर दिन सीखो -
'देखना',
हर दिन जानो
चीरना अँधेरे को
तोडना हर बंधन को
हिंसा के बिना



सत्य के लिए
नारा नहीं हो सकता कोई
क्योंकी
सत्य चिल्ला- चिल्ला कर
अपनी और ध्यान खींचने से परहेज करता है
शायद इसलिए कि सत्य को हमारी उतनी जरूरत नहीं
जितनी हमें सत्य की 
हमें पाकर भी
सत्य तो सत्य ही रहने वाला है
पर उसे पाकर
रूपांतरण ही हो जायेगा हमारा

सत्य को अपनाने के लिए
एक काम कर सकते हो
चुप रहना सीखो
चुप रहने का अर्थ
आत्म-यंत्रणा नहीं
आत्म-स्वीकरण है


इतने लम्बे रास्ते पर
इतने पहाड़
इतनी नदियाँ
इतने रेगिस्तान 
और सारी ऋतुओं को पार करके
उसने जो सन्देश दिया
वो मुझे अगर
यात्रा शुरू करने के पहले ही
दे देता
तो यात्रा शुरू ही ना होती
हो सकता है
तब इस सन्देश को खोखला मान कर
नकार ही देता मैं

अब तो
इतने सारे आयाम खुल रहे हैं
इतनी गहराई दिखाई दे रही है
लगता है
लौट कर अपने मूल तक पहुँचते पहुचते भी
शायद पूरी तरह
आत्मसात ना हो सके यह बात
कि
अन्ततोगत्वा
'जीवन का अर्थ 
अपने आप को स्वीकारना ही है'
और अब सोच ये रहा हूँ कि
यह मैं को अपनाने वाला 'मैं' है कौन?
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, ३१ जनवरी 2011

Sunday, January 30, 2011

वह जो पूर्ण है


एक तीर चलाने
के लिए
कई बरस की साधना

सध जाने के बाद भी
निरंतर अभ्यास

लक्ष्य तक पहुंचना
कितना सरल और सहज
पर
मांगता है
सतत सजगता, तत्परता

और इस तरह
अपने ही भीतर
होने लगता है प्रकट
वह
जो पूर्ण है

लक्ष्य तक पहुँचने
की निष्ठा और दृढ़ता में
होता है
निर्माण हमारा
अपने ही हाथों

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३० जनवरी २०११


Saturday, January 29, 2011

मेरे होने का सत्य




अब ये भी बोध है
कि सीमित तो है ही
देहयुक्त उपस्थिति का
यह काल,
 
पर यह सजगता भी कि
इस अवस्था के हर क्षण में 
बना रह सकता है
तादात्म्य अनंत से,
 
और यह अनुभूति भी कि
आनंद उमड़ने के साथ 
सहज ही फूटता है प्रेम 
सहज ही होती है
मंगल कामना सबके लिए,
 
किसी भी परिधि में सीमित 
नहीं है 
यह एक 
मेरे होने का सत्य 
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२७ जनवरी 2011 

Friday, January 28, 2011

हरियाली ऊपर से नहीं टपकेगी

 
पेड़ों की नंगी शाखाओं पर
ठहर गयी है बर्फ
सफ़ेद फूल सी
दे रही है
सांत्वना और सन्देश 
हरियाली ऊपर से नहीं टपकेगी
भीतर से हो ही जायेगी प्रकट 
समय आने पर 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शुक्रवार, २८ जनवरी २०११



Thursday, January 27, 2011

किसी की प्रेम गाथा



किसी एक क्षण
जब उतरने लगते हैं
छोटे-बड़े सवाल एक साथ
कहाँ थे
कहाँ हैं
जहाँ हैं वहां क्यूं हैं
दिशा क्या है
समय मुझे चला रहा है
या
मैं समय को चला रहा हूँ
कभी धूप, कभी बर्फ, कभी बरसात
ये सब जो रस्ते में आते हैं
इन सबके साथ मेरा रिश्ता
क्या मैं बनाता हूँ
या कोई और बनाता है
और ये जो कोई और है
इससे मेरा क्या नाता है
तात्कालिक ताल में 
सारे नाते बनाने वाले की तरफ से
ध्यान हट जाता है
मन छोटे- छोटे नातों की पहेलियों
में उलझ जाता है
पर
किसी शांति क्षण में
ना जाने कौन
सब कुछ सुन्दर, समन्वित कर जाता है
खिड़की से दिखते हैं जो
पेड़, पेड़ो पर जमी बर्फ,
थक कर सुस्ताता सा मुस्कुराता आसमान
लगता है ये सब किसी की प्रेम गाथा है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२७ जनवरी 2011

Wednesday, January 26, 2011

हर मनुष्य है महान


एक अदृश्य स्थल पर
निर्विकार वैज्ञानिकों का समूह
चेतना के सूक्ष्म तंतुओं की प्रयोगशाला में
कर रहा है
आविष्कार
एक ऐसी 'सघन शक्ति' का
जो जहाँ अनावृत हो
सृजन की लहरें उमड़ आयें
समन्वय के साथ 
प्रेम और आनंद के आलोक से खिल कर
पहचान लें
सब लोग
अपनी अन्तर्निहित
असीम मानवीय आभा
और
उस अनवरत अनंत के अनुनाद में लीन
मुखरित करें
हर स्थल पर
अपना अद्वितीय, विशिष्ट आल्हाद 
२ 
पहले कभी हिमालय की गुफा में बैठ कर
भेजते रहे थे
सकारात्मक, सृजनात्मक, आस्था जगाने वाले स्पंदन 
दूर दूर तक जो
अब
नगर-नगर
गाँव-गाँव
अपने आत्म-रूप में
 कर रहे हैं अनुसंधान
छेड़ रहे हैं आश्वस्ति की तान 
सब तक पहुंचा रहे हैं ये पहचान
कि हर मनुष्य है महान

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२६ जनवरी 2011
 



Tuesday, January 25, 2011

एक नया उपहार



लो
आज एक नया उपहार
नए दिन के साथ
प्रेम की पालकी में सहेज कर
ममतामयी स्पर्श सहित
लेकर आ गयी है 
साँसों में 
गुनगुनाने वाली
सृष्टिकर्त्री माँ

उपहार विलक्षण 
कई परतों वाला 
उत्सुकता से खोलना है
एक के बाद दूसरी परत
दूसरी के बाद तीसरी
उत्साह के साथ धैर्य रहा
तो उपहार का मर्म समझ आये
शायद इसमें 
किसी अनमोल खजाने का नक्शा मिल जाए
संभव है कोई नायाब हीरा ही निकल आये
पर देखना,  बिना इसकी ओर देखे
सारा दिन यूं ही ना ढल जाए
ऐसा ना हो, कल तक ये उपहार, अनछुआ ही
जहाँ से आया है,वहीं फिर लौट जाए
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, २५ जनवरी 2011




Monday, January 24, 2011

अमृत की प्यास उजागर कर







अमृत की प्यास उजागर कर
अब छोड़ चलें सब खंडित स्वर
मन का वह रूप बने हर क्षण
जिसमें अच्युत हो नित्य मुखर

हम देह प्रान्त के हैं वासी
पर विलसित हममें अविनाशी
एक उसकी ओर रमें निसदिन
जो है शाश्वत करूणा राशी
 
चल प्रेम प्रवाह मगन तन्मय 
संग विश्वमूल के अपनी लय
अब गगन दिव्य आशीष लिए 
वसुधा वत्सल, सागर चिन्मय

है चिर अमृतमय अपना घर
है सृजनशील मंगल निर्झर 
अब आत्म सखा के साथ साथ
साँसों में अक्षत प्रेम डगर

जय श्री कृष्ण

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ जनवरी 2011




Sunday, January 23, 2011

अब करें विश्व सत्कार प्रिये



चल देह द्वार के पार प्रिये
देखें अपना विस्तार प्रिये
इस मुक्त गगन की गोदी में
है कहाँ जीत और हार प्रिये

हम-तुम ही तो हैं प्यार प्रिये
अपनी है सतत बहार प्रिये
फिर अविनाशी के नाम उठी 
एक नूतन सरस पुकार प्रिये

है मधुर स्वपन झंकार प्रिये
इसमें साँसों का सार प्रिये
खोने पाने का खेल छोड़ 
अब करें विश्व सत्कार प्रिये


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ जनवरी २०११





Saturday, January 22, 2011

मन कैसा अद्भुत है



मन कैसा अद्भुत है
कभी तुम्हें बुलाता है
कभी रूठ जाता है
कभी सबको अपनाता है
कभी एकाकी हो जाता है

मन के पास
अपना संसार बनाने और मिटाने का
यह जो हुनर है
ये कहाँ से आता है
कौन संशय और विश्वास के झूले
मन उपवन में चुपचाप धर जाता है
कैसे हो जाता है ऐसा
कि कभी
हर बात का सार खो जाता है
और कभी कण कण में
अनंत का दरसन हो जाता है

अशोक व्यास
२२ जनवरी २०११

Friday, January 21, 2011

फिर उतर रही है बर्फ


 
फिर उतर रही है बर्फ
रूई के फाहों सी
मौन सौन्दर्य की चादर बिछाती हुई
उतर कर 
जब तक ठहरेगी
कुछ सवाल उठायेगी
कुछ सन्देश सुनायेगी
दृश्य बदलने की
अपने ताकत पर इतराए बिना
धीरे धीरे पिघल जायेगी
फिर उतर रही है बर्फ
बाहर
भीतर ऊष्मा है
जो सपनो की
तत्पर है
गति का आव्हान करने के लिए 
और धरती भी 
 देती है आश्वस्ति
करूंगी सहयोग 
तुम जब साहस के साथ 
उठाओगे कदम 
आगे बढ़ने के लिए
मैं प्रशस्त करूंगी पथ तुम्हारा
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
२१ जनवरी 2011


Thursday, January 20, 2011

तुम्हारे भेजे शब्द उपहार



जैसे आसमान से 
उतरा हो
फूलों का महकता गुलदस्ता,
जैसे आत्म-सखा रूप में 
साथ मिल कर
खिलखिलाया हो रस्ता,
ऐसे ही 
जब जब देखता हूँ 
तुम्हारे भेजे शब्द उपहार 
मेरे समूचे
अस्त्तित्व से फूटता है
रसमय, निश्छल प्यार 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरुवार, २० जनवरी २०११





Wednesday, January 19, 2011

तुममें ही परम कल्याण का सार


इस बार 
गंगा की धारा को 
बुला कर
सौंप दिया अपना आप
कह दिया "लो माँ
धुल दो
सारे दुःख-शोक, संताप"
 
उजला और स्वच्छ बना कर
पतित पावनी गंगा मुस्कुराई
जब भी तुम्हारे मन का होने लगे बुरा हाल 
तो मुझे बुलाने में देर ना लगाना मेरे लाल 

यूँ तो मैं नित्य तुम्हारे भीतर ही  करती हूँ निवास
पर बिन बुलावे कहीं ना जाने का बना है अभ्यास 
 
जो स्वयं का करना चाहते हैं उद्धार 
मुझे बुलावा भेजता है उनका प्यार 
शिव भी तुममें, भागीरथ भी तुममें
तुममें ही परम कल्याण का सार 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार, १९ जनवरी 2011










Tuesday, January 18, 2011

फोन करने से पहले



संवाद इस पर
निर्भर है कि
हम कौन सा गीत गाते हैं
प्रवाह बात का
बनाए रखने
हम कौन सा सुर अपनाते हैं

कभी हम
अपना सारा ध्यान बात पर नहीं
फ़ोन के बढ़ते बिल पर टिकाते हैं
 
और तब जब हम
बैंक की दृष्टि से तो
 सम्पन्न हो जाते हैं
या तकनीकी विकास से 
संपर्क शुल्क घाट जाते हैं 

 चलते चलते हम संशय के गलियारे से
कुछ परछाइयां बटोर लाते हैं
फिर ना उजला उजला कुछ कह पाते हैं
ना प्यार सुनाती नदी की कल कल सुन पाते हैं

ऐसा क्यूं होता है
जब हम एक अभाव से छुटकारा पाते हैं
दूसरे अभावों को  पालने में लग जाते हैं?


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 
१८ जनवरी 2011

Monday, January 17, 2011

शब्द ठिठुर कर जमने ना पायें

 
शब्द ठिठुर कर
जमने ना पायें
आओ मिल कर
स्नेहिल ऊष्मा जगाएं
जिस गीत से
जीवन गति पाये
वो धुन मिल कर
गुनगुनाएं

हम नदिया है अगर
सागर तक जाएँ
और सागर है अगर
किनारा छू आयें

व्रत लिया है
सृजन का हमने
सन्देश अपनेपन का
उत्साह से गायें 
उमड़ते साहस को 
सहयात्री बनाएं 
शब्द ठिठुर कर
जमने ना पायें

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१७ जनवरी २०११

Sunday, January 16, 2011

हर रिश्ता अब एक दुआ सा लगता है


 
अमृत का ये स्वाद नया सा लगता है
जो है मेरे बाद, नया सा लगता है

मुझे पुराना करता है जो हर एक पल
वो खुद तो हर बार नया सा लगता है 
 
उससे कुछ भी छुपा नहीं, ये कहते हैं
पर वो खुद हर जगह छुपा सा लगता है

रिश्तों के रस्ते में सार दिखा जबसे 
हर रिश्ता अब एक दुआ सा लगता है

जाने उसने किससे नाता जोड़ा है
उसका तो हर लफ्ज़ दुआ सा लगता है

ओस कली के मुख पर बैठ गयी आकर
मधुर कोई सन्देश वहां का लगता है

अशोक व्यास
रविवार, १६ जनवरी 2011


 

















Saturday, January 15, 2011

सारे जग में अपनापन है

 


अपने भीतर 
सर्वोत्तम की उपस्थिति को
activate करता 
प्रार्थनामय मन है

नित्य करता हूँ प्रार्थना
ताकि बोध सतह पर 
activate रहे वह 
जिससे सारा एक्शन है
 
उससे जुड़े बिना 
अकेलापन, अधूरापन
उससे जुड़ कर
सारे जग में अपनापन है
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
शनिवार, १५ जनवरी 2011

Friday, January 14, 2011

विराट शिशु होने का बोध



शब्द सारे 
उसके चरणों पर धर,
छोड़ कर
उस पर
अपनी हर सोच और क्रिया का 
दारोमदार 
 
हर दिन
हर क्षण
हर स्थिति में
निश्चिंत होकर 
उसके दिए 'शब्दों' की व्यवस्था से 
कर लेता हूँ व्यवहार 
 
विराट शिशु होने का बोध 
बढाता है
समन्वय,
आनंद और प्यार,
यह बोध जगाने वाले 
श्री गुरु चरणों में
नमन है
बारम्बार.
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
१४ जनवरी 2011


Thursday, January 13, 2011

नित्य प्रेम व्यवहार सिखाता है कोई


 
 
नित्य प्रेम व्यवहार सिखाता है कोई
मधुर मौन में उड़ कर आता है कोई

 अनदेखे हिस्से हैं भीतर जो सुन्दर 
उनको आलोकित कर जाता है कोई
 
 
उसके बोल पांखुरी जैसे फूलों की 
पर हर भय को दूर भगाता है कोई
 
हर पल नूतन होता है उससे रिश्ता 
पग-पग रसमाधुर्य लुटाता है कोई
 
लेन-देन पर उसका कोई ध्यान नहीं 
पूर्ण है जो, परिपूर्ण बनाता है वो ही

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१३ जनवरी २०११

 
 



Wednesday, January 12, 2011

मंगल गीत


 
सुबह सुबह
उसकी करूणाकिरण के स्पर्श ने 
भर दिया है मुझे 
आलोकित ऊष्मा से 

 
कृतज्ञता के दीप नयनों में जगाये
प्रसन्नता के मंगल गीत धडकनों में सजाये
मैं 
इस तरह निकल रहा हूँ
उसकी मनोरम डगर पर
कि
जैसे रुकना, चलना, तिरना, उड़ना
एक हो गये हैं सब
 
एकता के इस आनंद को कहने
अधर हिलाने में संकोच है
 
जिससे भी कहूँगा 
वो 'दूसरा' हो जाएगा ना!
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
                                                                                         १२ जनवरी २०११




 

Tuesday, January 11, 2011

तुम्हारे होने का संगीत




 
तुम्हारे होने का संगीत
बजता है 
तरह तरह से
तुम्हारी सोचों के साथ

कभी मधुर
कभी कर्कश
कभी आनंद बढ़ता
कभी आनंद घटता

तुम्हारे होने के संगीत में
रात भी है
दिन भी है
धूप भी है
छाँव भी है

इस मिश्रित संगीत में
तुम किसे अपना प्रमुख स्वर बनाते हो
इसका निर्णय तुम्हारा अपना है
इसका अभ्यास तुम्हे खुद करना है

धीरे धीरे
विवादी स्वर घटा कर
अपने साथ एक होते हुए
संवादी स्वर बढ़ा कर

अनंत की लय में
अपना आप देखते हुए
जिस क्षण तुम्हारा संगीत
क्षुद्र राग से परे
उदार विस्तार अपनाता है
तुम्हें सौन्दर्य का
चिर नूतन साम्राज्य मिल जाता है
और फिर 
जो भी तुम्हारे संपर्क में आता है
वो 
तुम्हारे संगीत को छूकर स्फूर्ति पाता है

तुम्हारा संगीत 
मूल को लेकर तब गाता है
जब तुमसे 
मेरेपने का भाव हट जाता है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, ११ जनवरी २०११


Monday, January 10, 2011

मौसम के रिश्तेदार



 
बदन के साथ
मौसमों का एक रिश्ता है
उसी तरह
मौसम का भी तो रिश्ता है
धरती से, सूरज से, पेड़ों से, हवाओं से

तो इस तरह
मौसम के ये सभी रिश्तेदार
हमारे भी तो संबंधी हुए ना

चलो इसी बात पर
सूर्य नमस्कार करें
धरती को प्रणाम करें
किसी ऋषि के कहे अनुसार ही नहीं
अपनी  अनुभवजन्य व्यावहारिक दृष्टि के साथ
 
अशोक व्यास, 
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, १० जनवरी २०११

Sunday, January 9, 2011

आस्था आशा की बड़ी बहन है


क्षितिज पर 
पहुँच कर
मेरे हाथों ने
कुछ देर के लिए
मिला दिया था
धरती को आसमान से
जैसे कोई नन्हा बच्चा 
पापा और मम्मी के हाथ थाम
दोनों को मिला दे
उनके बीच चलते चलते
 
२ 
अपनी पहचान का
नया-नया रूप
मिल जाता है 
मुझे हर दिन
जहाँ से
उस असीम को
भेजता हूँ निमंत्रण
शब्द नगरी में
हर दिन वह कहला देता है
'आज नहीं कल आऊँगा'
इस तरह 'व्यक्त' ना होकर भी
वो मुझ पर 
करता है कृपा


आस्था आशा की बड़ी बहन है
या शायद जननी है
पर 
सज-धज कर
नए सन्दर्भों में
चुस्ती से अपनी शोखी लिए
आशा के रूठ जाने पर 
उसे मना कर
मुस्कुराती है
और सौम्य आभा से
आशा को
सूरज की किरणों के साथ
खेलने ले आती है
मैं आशा नहीं
आस्था की पीढी का हूँ
इसलिए आशा को
कभी अपनी गोदी में खिलाता हूँ
कभी तुतलाते स्वर में
उससे बतियाता हूँ
और कई कई बार
आशा की दिव्य मुस्कान में
अमिट आस्था की झलक पाता हूँ

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, ९ जनवरी 2011

 


Saturday, January 8, 2011

अमृत पथ ही अपना पथ है


अमृत पथ ही अपना पथ है 

बात पुरानी नई शपथ है
अमृत पथ ही अपना पथ है
सभी व्रतों में एक बात है
सत्य का व्रत ही अपना व्रत है
वहां प्रेम हो रहे सहज ही
जहाँ त्याग की नित संगत है
कैसे गाऊँ झूठ की महिमा
अनुग्रह आँगन, कृपा की छत है
विविध रूप हैं मेरी माँ के
सुन्दर ऋतुओं की रंगत है
बीज वृक्ष कैसे बन आये
रेत नहीं, करूणा जाग्रत है
लिखा हथेली पर जननी ने 
कभी ना डरना, तू अमृत है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ जनवरी २०११
शनिवार




Friday, January 7, 2011

मंगल मौन






सहज है
हर क्षण की आवभगत करना
तत्परता से 
हर सांस में जाग्रत दीप लेकर
सम्भावना की आरती करना

सहज है
हर संपर्क में
आत्म तृप्ति उंडेल कर
पूर्णता का नित्य नूतन दरसन करना

सहज है
कृतज्ञता से
सृष्टिकर्ता के अपार वैभव को 
विस्मय से
हर पग पर देखना,
मुग्ध होना
और
सर्वव्यापी के 
सतत साहचर्य से
तन्मय होकर
चिर विस्तृत
मंगल मौन में 
लीन हो जाना

पर देखा-देखी में
कई बार
हम अपनी सहजता
के साथ
 असहज हो 
एक ऐसी चक्रीय गति का हिस्सा बन जाते हैं 
जहाँ पाने की होड़ में ऐसी दौड़ लगाते हैं 
कि अपनी सहजता से दूर होते जाते हैं
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
७ जनवरी २०११

Thursday, January 6, 2011

अपेक्षा चाहे जैसी हो

 
जाग्रत करता है 
एक उत्सव सा
भीतर एक सुन्दर अरुणोदय
इस शाश्वत सूर्य की किरणों का प्रसार
कब, कहाँ, कैसे होता है
इससे अनभिज्ञ
मैं बस नमन करता हूँ
इस अनंत वैभव को
अपनी संपूर्ण इयत्ता के साथ 
 
और 
इस प्रयास में 
कि इससे छिटक कर अलग ना हो जाऊं 
कई बार अवरूद्ध कर देता 
अपनी निर्मल गति 
 
अपेक्षा चाहे जैसी हो
असुरक्षा का कण मात्र बोध भी 
रोक देता है
मुक्ति के भाव का अविछिन्न फैलाव 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
६ जनवरी 2011

Wednesday, January 5, 2011

जो ना कहा जा सके


कौन तय करता है 
मन का रास्ता
कैसे खुल जाती है
स्वर्णिम पगडंडी अनायास

स्वर्गारोहण देह छोड़ने से नहीं
बंधन से छूट जाने 
पर होता है संभव
जीते जीते
मुक्त आनंद का एक गतिमान स्पर्श

लो मन के लिए 
सुलभ है जो
अद्वितीय पावन अनुभूति इस क्षण
कौन टिका सकता है इसे

पुण्य क्षीण होते ही
आरोहण से अवरोहण का क्रम भी
सक्रिय हो जाता है अनायास

पुण्य बढ़ाने में भी
गणित नहीं है कोई
बस समर्पण है
और
यह समर्पण 'गूगल' पर 'क्रेडिट कार्ड' से नहीं मिलता
जहाँ से मिल सकता है
उस सूक्ष्म स्तर तक
किसी और को कोई नहीं ले जा सकता
और अहंकार का प्रवेश तो संभव ही नहीं

पर एक कुछ है 
हमारे भीतर
जो ना कहा जा सके
ना दिखाया जा सके
ना जिसके होने की पहचान पर 
आप घमंड कर सकें

ये सतत सुन्दर विस्तार सा
कौन खोल कर दिखा देता है
किसी एक निश्छल क्षण में

इसकी आभा ना दिखाए किसी को दिखे
ना छुपाये किसी से छुपे

जैसे की यह क्षण स्वतंत्र है मुझसे
शायद इसमें सम्माहित है शाश्वत
कुछ विशेष प्रकार से

ऐसे कि शब्द मुझे माध्यम बना कर
लिख रहे हैं
उसका पता
जिसे जानने का दावा 
कर भी नहीं सकता मैं

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार, ५ जनवरी २०११
 

Tuesday, January 4, 2011

सारा जग है साथ

 
 
जीवन उसके नाम कर, जिससे हैं सब नाम
दिखे कर्म करता मगर, नित्य करे विश्राम



मन में उसकी बात है, जिससे है हर बात
चले अकेला पर लगे, सारा जग है साथ


मौन मधुर संवाद का, जो देता है खोल
उन्नत करते हैं सदा, उसके दुर्लभ बोल


अर्पण के हर ढंग में, बजे एक ही तार
तरह तरह से पहुंचना, छोटी मैं के पार


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, ४ जनवरी 2011

Monday, January 3, 2011

नए बरस में नए ढंग से खुद को बांचे



नए बरस में
नई बात की फसल आये
हर एक उलझन का 
 नया हल आये
नमन उस पथ को भी 
हम जिस पे यहाँ चल आये
और इस उजियारे को 
जो ले के नया पल आये

नयापन साथ है, तो साथ चिर जवानी है
नयेपन में विकास की मधुर कहानी है

इसी को देख कर आशा ले नई अंगड़ाई,
इसी के वास्ते ख्वाबों में बजे शहनाई

बदलती कोशिकाएं, देह नई है हर पल
समय के संग नई दिव्य नदी की कल-कल

सजने-संवरने में नयापन ही रस बढाए है
नई शोखी से प्रेम, नृत्य सा जगाये है

नए बरस में नयेपन की वो पहचान मिले 
कि जिससे नित्य-नूतन पग-पग पर आन मिले

नयापन उसके ही ऐश्वर्य की कहानी है
कि जिससे काल को मिलती नई रवानी है

चलो इस काल के संग ताल मिला कर नाचें
नए बरस में नए ढंग से खुद को बांचे

खिले विस्तार और वो प्यार हो अपना हमदम 
कि जिससे शांति और समृद्धि का फहरे परचम

नव वर्ष का ऐसे करें सत्कार
कि मुखरित हो सत्य का सार

बहुत अच्छे!

अशोक व्यास
सोमवार, ३ जनवरी २०११
न्यूयार्क, अमेरिका



Sunday, January 2, 2011

जो कभी नहीं होता पुराना

 
1

भिगो सकती है, कोई नन्ही सी बात
, रेगिस्तान में भी होती है बरसात
 
 २
 
नूतनता का स्वाद चखाए
नूतन वर्ष नव प्रश्न उठाये
क्या कल्याण हो रहा उससे
अब तक जिसको हो अपनाए

3

निष्ठा
बढ़ाता है
सत्य को
दोहराना,
सत्य वह है
जो कभी 
नहीं होता 
पुराना,
 
लक्ष्य
आत्माभिव्यक्ति
उपलब्धि
स्वयं को पाना 
  
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, २ जन २०११



Saturday, January 1, 2011

संकल्प क्या है

संकल्प

संकल्प क्या है
कुछ पाने, कुछ बनने, कुछ सिद्ध करने की
कटिबद्धता 
संकल्प के बीज से
पल्लवित कर्म वृक्ष
 
कर्म की शाखा है तूलिका
रंगबिरंगा नूतन चित्र बनाने 
उपलब्ध हैं ढेर सारे रंग 
भावना के, संबंधों के, संभावनाओं के
सीखने को कितना कुछ है संसार में 
 
संकल्प
उत्थान की सीढियां रचने का
एक विस्मय सूत्र है 
संकल्प टिकट लेकर
वायुयान में बैठ कर गंतव्य तक पहुंचना मात्र नहीं 
 
संकल्प ऐसे है
जैसे 
धमनियों में बहता लहू 
 
सिद्ध नहीं होता जीवन 
निरंतर प्रवाह के बिना 
और 
सकल्प को गतिमान करने वाली 
परम शक्ति
हममें छुप कर हमसे कहती है
यूँ तो हर पल
कि
ढूंढो, पहचानो, अपनाओ मुझे 
 
पर
नए बरस के पहले दिन
तीव्र होती है संकल्प शक्ति जगाने की सजगता हमारी

तो क्या इस बरस कर ही लें संकल्प

समग्र रूप से सर्वश्रेष्ठ को अपनाएं
और उत्कृष्ट बन जाएँ

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
जन १, २०११

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