Sunday, September 30, 2012

साँसों का साझा सार




तो फिर से देख लिया
 कहाँ से आती है ललकार
 किस बात पर 
कहाँ कैसे छिड़ जाते हैं हिंसा के तार 
हम सब हो रहे हैं कहीं न कहीं 
अधीरता के शिकार,
पर ऐसा भी क्या 
की छीना झपटी में 
धरती हो जाए तार- तार 

कब तक चलेगा ये 
अमानवीय सिलसिला 
कहाँ से ये आतंक 
हमें विरासत में मिला ,

ऐसा ही होगा क्या फिर इस बार 
हम कर देंगे खतरे को दरकिनार 
जब तक हम सुरक्षित हैं 
नहीं किसी और की मुसीबत से सरोकार,

इस तरह 
दिन पर दिन 
फ़ैल रहा है आग का घेरा 
तो क्या इस तरह मिट कर 
मिटाया जाएगा 
ये तेरा और मेरा 
क्या दिखा सकता है कोई 
हमें साँसों का साझा सार 
क्या मलहम बनने के साथ 
सन्देश भी बन सकता है प्यार 

तो कौन करेगा 
इस फैलती हुई आग का उपचार 
किसके पास है आश्वस्ति और 
शांति का अक्षय भण्डार 


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
30 सितम्बर 2012


Chup kaa taala



सुन सुन कर भी मिल जाता है मिलने वाला 
यूँ मिल कर भी खुल ना पाए चुप का ताला 
सबके चेहरों में बदलाव लिखे हर दिन 
फिर भी दिख ना पाए, कालजयी नंदलाला 

अशोक व्यास 
30 सितम्बर 2012 

Saturday, September 29, 2012

खिलखिलाता हुआ अनंत



लौट कर 
कैसे आ गया 
मैं 
इस गुफा में 
जहाँ बैठते ही 
छूट जाती हैं सब सीमायें 

यह 
खिलखिलाता हुआ अनंत 
समेत कर मुझे अपने 
शुद्ध बोध में 

मुखरित कर देता है 
यह कैसा मौन 
की जिससे 
झरता है 
निष्पाप प्रेम 

जाग जाती 
असीम करूणा 
और 
सुलभ हो जाता 
यह कैसा 
स्वीकरण 

जिसमें 
सहेज लेता 
हर घटना, हर मनुष्य, हर सम्बन्ध
हर काल 

क्या इसी को पूर्णता कहते हैं ?

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
29 सितम्बर 2012 

Friday, September 28, 2012

सूर्यकिरण का नया स्पर्श



 
 
इस बार 
उसके पास 
कोइ चांदी का सिक्का नहीं था 
न सोने की गिन्नियां 
वस्त्रों में भी 
राजसी ठाट-बात वाली झलक न थी 

पर
नदी के किनारे 
सादगी से 
अपने चेहरे पर 
सूर्यकिरण का नया स्पर्श 
दिखाई दे गया उसे 

2

चलते चलते 
फिर स्मरण हो आया उसे 
वह जिन रास्तों से होकर 
गुजरा है 
उनमें कई स्थल ऐसे हैं 
जो बार बार देख कर भी 
अनदेखे रह जाते हैं 

कई शब्द ऐसे हैं 
जिन्हें बार बार सुन कर भी 
खुलता नहीं उनका परिचय 
 
3
 
इस बार 
सारे यांत्रिक उपकरण छोड़ कर 
लौटने को हुआ वो 
जब अपने भीतर 
 
कुछ शब्द चुप चाप 
साथ हो लिए 
उसके पथ से 
अँधेरा हटाने 
और उसे 
अपने आप तक 
पहुंचाने 
 
 
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क,  अमेरिका 
28 सितम्बर 2012

 
 
 

Thursday, September 27, 2012

अनछुई पगडंडियों पर


फिर मैं ढूँढने निकला 
उस जादूगर को 
जिसके झोले में से 
निकल आती 
एक नई कविता 
हर दिन मेरे लिए 

फिर देखने लगा मैं 
उस शाखा को 
जिसके छूने पर 
भिगो देती थीं 
नन्ही नन्ही कवितायेँ 
मेरे अंतस को 

फिर दौड़ा कर दृष्टि 
चाहता था 
दिख जाए 
कहीं, किसी तरह से 
वह एक मोड़ 
जिस पर 
ताज़ा सन्देश धरा है 
अनंत का 
किसी कविता के आकार में 

और फिर 
थक-हार कर 
देखने लगा अपने ही भीतर 
वो स्वप्निल मैदान 
जहां बतियाने उतार आता था 
खुद आसमान 

पर ओझल हो गया था 
वह पूरा संसार 
जो पहुंचा देता था मुझे 
हर सीमा के पार 

फिर अपने सघन एकांत में 
शब्दों का साथ मांगते हुए 
अपने मौन से पूछा मैंने 
कविता का पता 

और 
साँसों ने कहा 
कविता बंधन से मुक्त करती है 
पर बंधे हुए मन के पास 
प्रकट होने से डरती है 

खुल कर आओ 
कविता को बुलाओ 

कविता अपनी सीमायें खोने का नाम है 
कविता सत्य के साथ एक होने का नाम है 

2

मैं 
बने बनाए विचारों के घेरे से परे 
पूर्व निर्धारित अनुभूतियों की पकड़ से बाहर 

अपने गडमड एकांत के साथ 
अनछुई पगडंडियों पर 
चलते चलते 

जब 
पूरी आश्वस्ति से 
गति के साथ तन्मय होने का परिचय जाना 

किसी सूक्ष्म जगत से दिखाई दिया नई कविता का 
चुपचाप उतर आना 

अशोक व्यास
 न्यूयार्क, अमेरिका 
सितम्बर 27, 2012

Thursday, September 6, 2012

चाहे वो सुन्दरतम हो


यह जो एक रस है 
तुम्हारे होने का 
क्या क्या शामिल है इसमें 
कभी सोच कर देखना 
कहीं न कहीं 
धरती के होने का प्रमाण मिलेगा 
तो कहीं आकाश का स्थान मिलेगा 
साथ ही साथ 
जल, अग्नि और वायु भी 

तो वह सब जो चारों और है हमारे 
भीतर भी वही है 
पर कुछ है 
जो अलग करता है 
हमें सबसे 
एक इकाई बनाता 
व्यक्तित्व का रूप दिलाता 

इस अलगाव के पीछे भी तो 
रचने वाले का कुछ न कुछ मंतव्य होगा 

वर्ना क्यूं होता तुम्हारा यह रूप 
धरे रहते 
धरती और आकाश 
अपने-अपने विस्तार में 

पर तुम हो 
इस होने के पीछे जो रस है 
उसकी गहराई में 
जिसकी परछाई है 
उसे देखने के लिए है 
बाज़ी बिछाई है 

बाज़ी बिछाने वाला भी वही है 
और अड़चने बनाने वाला भी वही 
पर सुना है 
वो चाहता है 
इन सब बाधाओं को पार कर 
मैं उसे देख लूं 
और 
ये भी सुना है 
की देखने से मिट जाता है मेरा उससे यह अलगाव 

अब क्या है की
  हो गया है 
इतना लगाव 
इस अलगाव से 

कि  
चाहे वो सुन्दरतम हो 
चाहे वो समाधान हो हर समस्या का 
मैं 
अपनी छोटी- छोटी 
हार-जीत के खेल में मगन 
नकारता हूँ 
उसका होना 
नहीं सोचता 
कहाँ से आया है 
मेरे होने का रस 
बिना सोचे 
काल का हाथ पकड़ 
एक दिन से दूसरे दिन तक 
छलांग लगा लेता हूँ बरबस 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
6 सितम्बर 2012 

Tuesday, September 4, 2012

परिधियों से परे तक- हंगल


न्नाटे में
कैसे बोलती है
उसकी आँख अब भी

सादगी से संवेदना तक पहुंचाती
उसकी
यूं ही सी आँख
छुपाये रही
कैसे वो एक आग सी

वो आग
जिसको धधकते हुए न देखा गया चाहे
उसकी लौ में
उभर गए कितने अमिट किरदार

उसकी हंसी में
वो कैसा प्रेम छलकता था
परिधियों से परे तक
ठंडक पहुंचाता

 शीतल मन, करूणा निश्छल 
आने-जाने से परे हो गए हंगल

अशोक व्यास




Sunday, September 2, 2012

जो वैसे है बड़ा आसान


एक वो दौर जब   
प्रेम कवितायेँ 
शहतूत की तरह 
टपकती थीं 
अँगुलियों की पोरों से 

भीगे मन पर 
उभर आती थी 
चांदनी की पद-चाप अनायास 

ना जाने कैसे 
भागते हिरन की आहटों में 
सुनाई दे जाता था 
झील का सुरीला गीत 

तब 
यूँ था कि 
माटी में महल बनाने और बिखेरने का खेल 
अच्छा लगता था 
बहुत सुहाता था 
सत्य के शाश्वत सुर
सुन ही नहीं पाता था 


और फिर
मिटने मिटाने के खेल से 
समझ कुछ उकताई 
अनुभव गंगा में 
अंतरहित की वाणी उभर आई  
चिरंतन की अंगुली पकड़ कर 
 बदलते हुए सब आकारों में
दे गया बस एक ही आकार दिखाई 


छूट सा गया
दिल को बहलाने वाला 
पुराना हर खेल 

अब
कभी तो 
समंदर आलिंगनबद्ध करता है 
और पूर्णता का बोध सा  भरता है 
सूर्य पुत्र होने का भाव जगा कर 
मेरा सारा दारिद्र्य हरता है 

पर कभी 
ऐसा भी होता है 
सहसा 
छिटक जाती है 
अनंत की लय 
उमड़ आता है 
अनिश्चय का भय 

फिर फिर करना होता है 
पहचान का आव्हान 
कितना मुश्किल हो जाता है यह सब 
जो वैसे है बड़ा आसान 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
2 सितम्बर 2012 

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...