Thursday, June 7, 2012

अंतरहित चेतना



उसने बाहें फैला कर 
सहज ही 
नाप दिया विस्तार जगत का 
इतना सारा 
पर इतना ही 

हाँ इतना ही है विस्तार जगत का 
जितना समा जाए तुम्हारी बाँहों में 

अपनी बाँहों में 
अनंत को अलिंगंबद्ध करने के लिए 
बस इतना ही करना है 
छोड़ दो उसे 
जो तुम्हारी बाँहों के फैलाव को 
सीमित कर 
अंतरहित चेतना पर 
खींचता रहता है 
लकीर सीमाओं की 


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
7 जून 2012



Wednesday, June 6, 2012

शुद्ध आनंद सा


घोषित करके 
शिखर पर से 
उंडेल देने 
सत्य का उजाला 
पहुँच कर 
जब खोली अपनी हथेलियाँ 
उसने 
उड़ गया 
उजाला 
आस्मां की तरफ 
और 
मैदान में 
उतरी 
बस उसके खाली हाथों की परछाई 

2

इस बार 
सोचा था यह 
उसने 
अपनी स्वर्णिम आभा 
न छुपायेगा 
न दिखाएगा 
बस 
मौन के माधुरी में 
घुल जाएगा 

3

इस बार 
उसके 
रोम रोम से 
फूट रहा था 
जो शुद्ध आनंद सा 
उससे अनभिज्ञ 
मगन अपने आप में 
रमता रहा 
अव्यक्त अनन्त में 
वह ऐसे 
जैसे 
युगों युगों से 
करता रहा हो 
रमण 
इसी तरह 
सीमातीत में 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
6 जून 2012 

Tuesday, June 5, 2012

द्वार की देहरी पर


बड़ी देर से
खड़ा है वह
द्वार की देहरी पर
एक कदम बाहर
एक कदम भीतर
हवा न जाने कितनी बार
कर गयी है पार
अनदेखा कर
सीमाओं का सार
और वह
फिर एक बार
होकर तैयार
कर रहा
जड़ता का सत्कार

या अपनी किसी
  निश्चल सपने के साथ
छोड़ नहीं पाता
बीती हुयी बात

अब
थोड़ी देर में
उतरने को है रात
उसने फिर से
टटोला है अपना हाथ
देख कर लकीरें
ढूंढ रहा सपनो की बारात 
अब निकलते निकलते
हो चली है रात
पर उगते सूरज की तस्वीर है
साँसों के साथ

उसकी गति से
फूट रहा है
ऐसा उजाला
दिन जैसी
हो चली है रात


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ जून २०१२

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...