लिखना कुछ नहीं
बस देखना है
इस क्षण को
इस क्षण को नहीं
अपने को इस क्षण में
छू लेना है उसे
जिसे कहा जाता है
मेरा होना
शब्द ऐनक लगा कर
अपने आप में सम्माहित
मैं
सुन रहा हूँ
दूर से गूंजता
एक नाद
स्पंदन सा यह
बह आता जो
काल की परतों के पार से
कैसे सम्बंधित है मुझसे
महसूस करता
सीमा पार की अपनी उपस्थिति
मैं मुग्ध हो लेता हूँ
किस अनिवर्वाचनीय अनुभूति के स्वाद में
और एक अज्ञात गुफा में बैठ कर निश्चल
दीप्त भाल लिए
निहारता हूँ एक यह अचीन्हा विस्तार
और देखते देखते
मिटने लगता है
मेरे और इस विस्तार का भेद
मेरे चहुँ और उतरती हैं, बहती हैं, छछलाती हैं
कई कई धाराएं प्रेम और मंगल कामनाओं की
मैं एक तीर्थ हूँ
अशोक व्यास न्यूयार्क, अमेरिका
१९ सितंबबर २०१४
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