सचमुच
यह जो शब्द हैं
तुम्हारे लिए नहीं हैं
न ही मेरे लिए
ये हैं
क्योंकि इन्हें होना है
इन्हें होना है
एक यात्रा के लिए
यात्रा जिसका गंतव्य
छुपा है
कहीं इनके भीतर
ऐसे की
होता जाता है प्रकट
इनकी गति के साथ
मैं और आप
साक्षी हैं
इनकी यात्रा के
जाने अनजाने
देख रहे हैं
ये पगडंडियां
ये जंगल
ये झरना
ये पर्वत
ये बस्ती
ये भीड़
ये एकांत
ये शांत सघन छाया
जिससे छा रही है
सारे जग की छटपटाहट
ये शब्द
कैसे बचा कर रखते हैं
अडिग आश्वस्ति
अजेय शांति
और
ये आस्था
जो बाहरी जगत से लुप्त होते होते भी
सुरक्षित है
इन शब्दों में
ये अमृत सिंधु शब्द
न मेरे हैं
न तुम्हारे
हमारे होते
तो हमारी सीमाओं में उलझ कर रह जाते
शायद कोई क्षुद्र गीत गाते
शायद इनमें छलक जाती
हमारी ही कोई सीमित कामना
शायद इनमें उभर आता
कोई आक्रोश,
कोई प्रतिशोध
कोई बेचैनी
पर अच्छा हैं
हमसे मुक्त हैं ये शब्द
इनकी मुक्ति में
झिलमिला रही है हमारी मुक्ति
देख देख
इनकी यात्रा
मिलता है परिचय उसका
जो सीमातीत है
जो समयातीत है
और यह परिचय मेरा तो नहीं लगता
तुम्हारा तो नहीं लगता
ये शब्द
देते हैं परिचय
उसका
जो 'मेरे - तुम्हारे' से परे है
ये शब्द
न मेरे हैं
न तुम्हारे
बस हैं ये
हम साक्षी भर हैं
इन शब्दों की यात्रा के
जिसके होने से जुड़ा है
हमारा होना
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० सितम्बर २०१४
1 comment:
sundar panktiyan
jai shankar
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