एक दिन
जब बढ़ने लगता है
ये अहसास
की हर अनुभव पर
एक 'अंतिम तिथि' लिखी है
जैसे
बाजार से दूध लाओ
तो उसे एक निश्चित तिथि से पहले
प्रयुक्त करने का संकेत अंकित होता है
वैसे ही
हर ख्वाब, हर सपने, हर चिंतन के प्रयोग की
कोई न कोई अंतिम तिथि है
तब
एक बारगी
हड़बड़ी में सब कुछ
जल्दी जल्दी ख़त्म कर लेने की व्यग्रता
और फिर
अपनी अक्षमता
और फिर निष्क्रियता
और फिर नए सिरे से संतुलन की तलाश
चुकते चुकते
चूकने से बचने का
एक और प्रयास
कविता की गोद में
बैठ
अपने आप को लाड लड़ाता हूँ
क्षितिज को थपथपाता हूँ
असीम को साथ खेलने बुलाता हूँ
ये कैसा द्वार खोल देती कविता
जिसके उस पर
मैं पूरी तरह नया
निश्छल सौंदर्य को छूकर
हर 'अंतिम तिथि' से परे
क्या शाश्वत हो जाता हूँ?
अब ये सोच कर मुस्कुराता हूँ
की सब कुछ नाप लेने की ज़िद में
मैं स्वयं ही अपने लिए
एक 'अंतिम तिथि' निश्चित करता जाता हूँ
इस पार रहूँ
तो 'अमिट' हूँ
पर अनजाने में
कविता को झुठलाता हूँ
और
नुकीले प्रश्न उगा कर
उस पार जाता हूँ
लहूलुहान होता जाता हूँ
ये कौन झूला रहा है मुझे
विध्वंस और सृजन के बीच
देखता हूँ
तो देखते देखते
अनंत से आँख मिलाता हूँ
फिर मुस्कुराता हूँ
कविता को कृतज्ञता से देखता
अपने कवि होने पर धन्य हुआ
सबके लिए प्यार लुटाता हूँ
अशोक व्यास
न्यूयार्क अमेरिका
२४ मार्च २०१७
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