टालता हूँ जीना
दिन दिन
जाने अनजाने
देख कर
अनदेखा कर देता
जाने पहचाने रास्ते
किसी एक दिन की
प्रतीक्षा में
सुरक्षित रखे सपने
न जाने कब
धीरे धीरे
पीले होकर
झड़ने लगते हैं
टालता हूँ जीना
कभी प्रमाद में
कभी अवसाद में
कभी टूटे सपनो
की याद में
और धीरे धीरे
हो लेता हूँ वह मनुष्य
जो मुझे नहीं होना था
जो मैं नहीं हूँ सचमुच
धीरे धीरे
डर और असफलता के बीच
सहानुभूति का कटोरा लिए
निकलता हूँ
जब अपनों के बीच
अनायास
अपरिचित हो जाते हैं सब
क्योंकि वे मिलते हैं
उस मनुष्य से
जो मैं नहीं हूँ
टालता हूँ जीना
क्यों की भूल जाता हूँ
हूँ कौन मैं ?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ मार्च २०१७
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