लौट सकता हूँ अपने आप में
कभी भी
यह मान कर
उम्र भर
बाहर ही बाहर
घूमता रहा हूँ
आखिर
थक हार कर
विश्राम करने
घर लौटने की तड़प लिए
ढूंढने निकला जब
रास्ता भीतर का
कितना कुछ बदल गया है
झूठ मूठ के रास्ते
इतने सारे बना दिए
इतने बरसों में
की सचमुच अपने भीतर लौट पाने की
सामर्थ्य
खो गयी लगे है
और अब
संसार के मेले में
जब लगता है एकाकी
पाने और खोने के खेल से परे
अपनी पूर्णता की आश्वस्ति भी
सरक गयी है कहीं
लो
इस सब दार्शनिकता के धरातल से
अलग नहीं हो तुम भी
साथी हो मेरे
मानोगे
अगर बताऊँ
पास वर्ड मेरे फ़ोन और कंप्यूटर के
काम नहीं कर रहे
इसी की बैचेनी है
किसी के नंबर भी तो याद नहीं
दादी की कहानियों में
तोते में जैसे
किसी राक्षस की जान जुडी होती थी
डिजिटल तोतों में
छुपा ली है हमने अपनी अपनी जानें
पर दादी हम राक्षस तो नहीं हुए न ?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२५ अक्टूबर २०१६
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