अब भी
अदृश्य भूमि में
हर दिन
शब्द कुदाल से
खोदता हूँ
पसीने से लथ पथ
हांफता हांफता
एक वह हीरा पहचान का
जिसकी चमक से
थम जाए
मेरा मुरझाना
२
नूतन रश्मियों से आल्हादित
हर दिन
छोड़ देता
अपनी पहचान बीच राह में
बैठ जाता
सुस्ताने
और फिर
भूल ही जाता
अपनी खोज
३
एक नया दिन
एक नई खोज
नित्य नूतन शब्द
मुस्कुरा कर
बढ़ाते हैं हौसला
देते हैं दिलासा
होगा
हो जाएगा
मिलेगा
मिल जाएगा
करो प्रयत्न
और प्रयत्न
रुको मत
मत रुको
सीमित नहीं
यह अदृश्य भूमि
इसकी गहराई में
छुपे हैं
अगणित अक्षय चमक वाले हीरे -मोती
४
सहसा
रुक कर
सुस्ताता नहीं
पूरी तन्मयता से
सुनता हूँ
शब्द का मौन
सुन सुन
हो जाता तन्मय
सरक आता
होने और पाने की चाह से परे
हँसते हँसते
निशब्द बोलता हूँ
नीले आकाश से
अक्षय चमक वाला वो हीरा
जिसे ढूंढता रहा हूँ
कहीं
मैं ही तो नहीं ?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार, ७ सितंबर २०१५
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