दिन यूँ ही फिसलने लगा है फिर
बैठे बैठे
देख रहा
वक्त का सरकना
यह घना एकांत सा है जो
इसे तोड़ने
करता नहीं धमाका
धीरे धीरे
बुलाता हूँ
तुम्हें फिर
तुम आओ
तो चिड़िया चहके
हवाओं में महक तुम्हारी
घुल जाए तो मस्ती छाए
सपनो के रंग फिर से
देने लगें आसमान पर दिखाई
मुझसे बात करने लगे
मेरी परछाई
तुम आओ
तो
सावन के झूलें की पेंगे
झिलमिल खिलखिलाहट सी रचाए
तुम आओ न
बस तुम्हारे होने के अहसास से ही
बदल जाती है दुनिया
मैं कुछ नहीं करता
तब भी
करता हूँ इतना तो
की तुम्हारे होने का अहसास
जगाता हूँ
इस तरह बार बार
जीवित रहने की
आश्वस्ति छू पाता हूँ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
जुलाई ३, २०१६
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