जैसा दिखता है
वैसा नहीं
जैसे दिखाया जा रहा है
वैसे देखो
और यदि न भी देख पाओ
तो कम से कम
कहो तो वही
जो कहा जा रहा है
सबके द्वारा
पीढ़ी दर पीढ़ी
जैसे दिखता है
जैसे महसूस होता है
वह तुम हो
ऐसा मानना ठीक सही
पर ऐसा कह कर
चुनौतियाँ बुला लोगे अपनी ओर
तुम्हारी सोच
बेशकीमती सही तुम्हारे लिए
पर समझते हो न
इस सोच की कीमत
खतरे से चुकानी पड़ सकती है
खतरे वे
जो दीखते नहीं
पर हैं
डरना ठीक हो या न हो
दस्तूर है
इस दौर का
डर डर कर जिओ
और निडर होने का ढोंग रचाते रहो
जैसे दीखता है
वह
शब्दों की बाँहों में
कैसे समेटें
देखे फैला फैला कर
सोच अपनी
वहां तक
जहाँ
संघर्ष होता है
होने का स्वांग भरने और सचमुच होने में
इस संघर्ष में
कितनी बार हारे हो
नहीं कहा न किसी से
इस बार जीत भी हार जैसी ही है
हमारे दौर में
मृत्यु से न डरने की फितरत
स्याह रंग से प्रेम करने वालों के पास अधिक है
हम डरते हैं
क्योंकि
सभ्यता की चादर में
सुरक्षा का जो घेरा है
उसने हमारे खून में
ज़िंदगी के प्रति
इतना प्रेम भर दिया है
की हम डरे डरे से ही रहते हैं
पर डर डर कर जीना भी
एक तरह से
मृत्यु सरीखा ही हैं न
बस
यह वहम सा बना है
की हम ज़िंदा हैं
जी लें
जब तक जी सकें चुपचाप
या फिर
बोल कर
सुने सुनाएँ
अपने होने की थाप
निडर होने की भी एक मस्ती है
एक आनंद है
सत्य के साथ खेलने में
अनुपम मकरंद है
गोल गोल चिंतन
इस धुरी के
इर्द गिर्द आता जाता है
सत्य के बिना
सांस भले आये-जाये
जिया कहाँ जाता है ?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
जुलाई १, २०१६
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