१
गली के मोड़ से कविता मुस्कुराई
तुमने कोई किताब नहीं छपवाई
उलाहना देते देते वो खिलखिलाई
मैंने भी देदी अपनी मुस्कान खिसियाई
२
तुम छुपा कर रखना चाहते हो मेरे साथ अपना नाता
क्यों इस सम्बन्ध का ढिढोरा पीटना तुम्हें नहीं सुहाता
कविता आज नहीं दिखा रही थी गहराई
जैसे उसके साथ कोई शोखी सी लहराई
अब उसने दिखलाया लुभावना अंदाज़
कहने लगी, किताब छपवा लो मेरे सरताज
३
ये क्या रूप? तुम मेरे प्रेयसी हो या मेरी मैय्या हो
तुम लहर हो नदी की या नौका की खिवैया हो
मेरे लिए तुम अप्सरा नहीं हो शब्द तन वाली
मेरे लिए तुम मेरे गिरिराज धारण की गैय्या हो
४
कविता फिर खिलखिलाई, जोर जोर से खिलखिलाई
इतनी की क्षितिज तक खिलखिलाहट सी छाई
क्यूँ तुम मुझे रूप और सम्बन्ध की साँचे में ढालते हो
क्यों किसी भी सम्भावना को मुझसे बाहर निकालते हो
५
मैं असीम संभावना वाला विस्तार हूँ
सबको अपनाने वाला शुद्ध प्यार हूँ
परे हूँ हर बंधन, हर परिधि के
मैं आकार होकर भी निराकार हूँ
६
क्या तुम ईश्वर हो, मैं होने लगा प्रस्तुत पूजन के लिए
इस विस्तृत रसमयता प्रदात्री के अभिनन्दन के लिए
आँख मुंद गयी, एकत्व के सुर देने लगे सुनाई
मेरे रोम रोम से मुस्कान सी जगमगाई
७
अब तुम यहाँ ही इस तरह बैठ न जाना भाई
फिर किताब छापने की सुध कौन लगा भाई
मैं ही मैं हूँ सर्वत्र, ये तो न भूलो
पर अनुभवों का झूला तो झूलो
८
कविता रसमयता का नित्य नूतन ग्राम
यहाँ स्फूर्ति और अनिर्वचनीय विश्राम
मैंने फिर से स्वयं को स्मरण करवाया
शब्द के निःशब्द रूप को सहलाया
९
कविता अब दे नहीं रही थी दिखाई
प्रयत्न करके भी बात हाथ मं आई
दिखते-२ छुपने की कला तुम्हें किसने सिखाई
मैंने पूछा, तो वो मुस्कुराई, फिर खिलखिलाई
बोली
देखने वाली आँख जब पुनः जगाओगे
मुझे अपने आस - पास देख पाओगे
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२२ जून २०१६
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