फेसबुक
अब कभी जोधपुर का सोजती गेट
कभी न्यूयार्क का टाइम स्क्वायर
कभी अपने अपने शहर की सड़क
या प्रमुख हाईवे
फेस बुक में
सारे जहाँ के लोग
फेस विहीन से
रुके रुके
चलते हुए
एक रैले में
एक धारा सी
बहती है
ऐसी फेसबुक में
जिसका नहीं है किनारा कोई
इस धारा में
कभी
वो मिलते हैं
जिनसे हम मिलना चाहते हैं
कभी
वो मिलते हैं
जो हमसे मिलना चाहते हैं
कभी वो भी
जिनसे हम मिलना नहीं चाहते
और कभी कभी वो भी
जो न हमसे मिलना चाहते
न जिनसे हम मिलना चाहते
फेसबुक
कभी लाइक्स बटोरने का एक खेल सा
भर देता
क्षण भंगुर उत्तेजना
प्रसन्नता या अप्रसन्नता का बुलबुला
उपजाती फेसबुक
जुड़े होने का भ्रम जगा कर
कभी हमें और अधिक एकाकी कर जाती
सोशल मीडिया
अब एक आवश्यकता
पर
कभी दूर कर समाज से
हम सब पर फ़िल्मी कलाकारों की तरह
एक छवि बनाने का दबाव लगाता
अनजाने में
सहज जीवन का सौंदर्य न जाने कब
हमसे छिटक जाता
कल्पना करें
आये एक ऐसा दिन
जिस जिससे भी मिलें
बस 'नमस्कार' या 'हेलो' मात्र कहें
सचमुच बात करने का समय
न हो किसी के पास
क्या होगा इसका
यह जो गहरे सवाल लेकर
ज़िन्दगी को जानने समझने की है प्यास?
फेसबुक की फेस विहीन धारा में
क्या हमसे हमारी भीतर देखने की वृत्ति छूट जाती है
हर नई सुविधा अपने साथ कुछ
अतिरिक्त जिम्मेवारियां लेकर आती है
जिनकी समझ हमें बहुत देर बाद आती है
तब तक जीवन की गाड़ी
कितना कुछ
बहुत पीछे छोड़ जाती है
हमारे पास रहती है
एक कसक सी
जो न कही जाती है
न सही जाती है
क्या अब फेसबुक पर एक नया ग्रुप बनाएं
जिसमें हम इस बात पर बतियाएँ
की इस फेस विहीन धारा में
अपने चेहरे से अपनी पहचान कैसे बचाएँ
कहीं ऐसा न हो की हमें पता ही न चले
और हम खो जाएँ
अशोक व्यास, न्यूयार्क, अमेरिका
४ अप्रैल २०१६
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