टटोल टटोल कर
यादों की पच्छीत पर
बरामद करना
वो दिन
पतंगों के
आकाश के
उत्साह के
पेच लड़ाने की प्रतिस्पर्धा वाले
गज़क, रेवड़ी
छत
आसमान
पतंगों के साथ उड़ती सी जान
पेच लड़ गया है
धागे से हाथों तक पहुँचती पहचान
कभी ढील
कभी खींच
कभी कोई दूर उड़ती पतंग
की खींच में
अपनी पतंग गँवा कर खिसियाना
कभी कोई पेच काट कर
मन ही मन
अवर्णनीय संतोष पाना
और अपनी छत से उड़ती पतंग के साथ
अपनेपन वाली वो अजीब सी बात
अब
'वो काटा है' का सामूहिक स्वर
जगा कर यादों के ऑडिटोरियम में
ठहाकों की जगह
एक कसक सी भर जाती है
एक कसमसाहट
जैसे नौका जा चुकी है किनारे से
लौटने वाली नहीं है
अब धीरे धीरे
सिमटता जा रहा है
वो हिस्सा
जिसे छूकर मुमकिन था
यादों के उजाले में नहाना
अब जैसे
खो रहे हैं वो रास्ते
जिन पर चल कर
बचपन के पेड़ों पर
कूदना- फाँदना संभव हो
जाता था
आज
इतने दूर
गुलाबी नगर के उन दिनों से
जब छतों की रंगीनियों में
बेहिसाब मजा आता था
वो अनुभव, वो अनुभूतियाँ
परे हैं अब पहुँच से
फिर भी
आँख की कोर से
बहते ये आंसूं
शायद एक छोटी सी कोशिश हैं
उन स्मृतियों को बचाने की
जिनसे बना है
मेरे बनने का रास्ता
पर
कितना कुछ छूट जाता है
बनते बनते
सहज ही
और इस क्षण
जब कट कर
हिचकोले खा रही है
स्मृति पतंग
भाग भाग कर
शब्दों के साथ
निकल पड़ा हूँ
इसे लूटने
नंगे पाँव
यादों के पेच लड़ाता
अपने मन के आकाश में
मैं ही उड़ाता हूँ जादू की पतंग
और
अपने बेमाने से लगते बीती पलों में
सारे जीवन का मतलब देख आता हूँ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
जनवरी १४, २०१५
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