रुकता नहीं
रुक रुक कर भी
चलता जाता है
एक कुछ
भीतर मेरे
जिसके संकेत पर
देख देख कर उसको
सुन्दर हो जाता है
हर संघर्ष
हर पीड़ा के पार
पहुँच कर
लगता है
हो गयी अनावृत
उसकी स्वर्णिम आभा
कुछ और अधिक
पहले से
आश्वस्त आधार पर भी
ना जाने कैसे
रच देता वह
कुछ ऐसे कम्पन्न
की मिल जाता मजा
लड़खड़ा कर सँभलने का,
विराट की
विनोदप्रियता पहचान कर
कभी कभी
अनंत का नम स्पर्श
झलका है
मेरी मुस्कान में भी
और तब तब
कृतकृत्य हुआ हूँ
पहले से कुछ ओर अधिक
इस धन्यता पर
सवाल उठाते सन्दर्भ
छीन लेना चाहते
मुझसे
परिपूर्णता का बोध
और मैं
द्रौपदी के चीर सी
अनवरत श्रद्धा से
उसकी मर्यादा बचाना चाहता
अपने भीतर
जिसका नाम शाश्वत सत्य है
जुलाई १३ २०१४
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