1
सुबह से शाम तक
एक बगूला सा उठता है
एक लहर ऐसी
जिसको किनारे की ओर नहीं
आसमान को छू लेने की
ज़िद है
और मैं
चारों दिशाओं में
तलाशता फिरता
वो छड़ी
जिससे छूकर
शांत कर दूँ इस लहर की
२
लहर में
शामिल है
वो सब जो दिखा
पर उससे ज्यादा वो
जो रह गया अनदेखा
वो सब जो हुआ
पर उससे ज्यादा वो
जो रह गया अनहुआ
लहर में
छुपी है
एक छटपटाहट
और
अपने आपको
फिर से सहेजने, संवारने
सँभालने की चाहत
ये कौन है
जो बदल कर
"सही होने का अर्थ'
सहसा
बड़ा सा प्रश्नचिन्ह लगा कर
मेरे अस्त्तित्व पर
कर देता है मुझे
३
रेगिस्तान के
एक अंदरूनी हिस्से में
होंठों पर जमी पापड़ी से
रेत हटाता
दूर
मरीचिका देख कर
मुस्कुराता
हांफता
गिरता
चुपचाप
विराट रक्षक के आगे
गिड़गिड़ाता
पर
हार मानते मानते
फिर एक बार चलने लगता
थका- थका लड़खड़ाता
कैसे रिश्ता है
उम्मीद से मेरा इसे कभी
छोड़ नहीं पाता
१७ जुलाई २०१०
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